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धर्मशास्त्र का इतिहास
शिवा चतुर्थी: भाद्रपद शुक्ल ४ को शिवा कहा जाता है; उस दिन स्नान, दान, उपवास एवं जप से सौगुना पुण्य होता तिथिव्रत; देवता गणेश हेमाद्रि ( व्रत० १, ५१२-५१३, भविष्यपुराण १।३१।१-५
से उद्धरण) ।
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शिवोपासनव्रत: दोनों पक्षों की अष्टमी एवं चतुर्दशी पर उपवास एवं शिव-पूजा ; एक वर्ष तक; कर्ता को सत्र करने का पुण्य प्राप्त होता है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ३८५-३८६)।
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शिवपवित्रव्रत : आषाढ़ पूर्णिमा पर शिव पूजा शिव को यज्ञोपवीत-दान एवं शिवभक्तों को भोजन ; पुनः कार्तिक पूर्णिमा पर शिव-पूजा; संन्यासियों को वस्त्र दान एवं दक्षिणा हेमाद्रि ( व्रत० २,८४३, शिवधर्मोतरपुराण से उद्धरण ) ।
शीतलाव्रत : श्रावण कृष्ण ७ पर कलश स्थापित कर उस पर शीतला की प्रतिमा का पूजन एवं आठ वर्ष या उससे कम अवस्था की ७ कुमारियों को भोजन; इससे वैधव्य से मुक्ति, दरिद्रता का नाश, पुत्रोत्पत्ति आदि का लाभ; व्रतार्क ( पाण्डुलिपि १११ - ११३ ) ; अहल्याकामधेनु ( पाण्डुलिपि ४३८ बी -४४० बी ) । कुछ लोग इसे श्रावण शुक्ल ७ पर करते हैं । यह केवल नारियों के लिए है । नैवेद्य केवल घी एवं दही का होता है । शीतलाष्टमी : चैत्र कृष्ण ८ पर शीतला को माता माई (चेचक की देवी ) कहा जाता है; शीतला-पूजा; रात-दिन आठ घृत-दीपों से पूजा तथा गाय के दूध एवं उशीर (एक प्रकार की सुगन्धित जड़, खस ) से सुगन्धित जल छिड़कना ; गदहा, झाडू एवं सूप का पृथक्-पृथक् दान कृत्यतत्त्व ( ४६२ ) ; अहल्याकामधेनु ( पाण्डुलिपि, ५५८ बी-५६१ ए ) ; गदहा शीतला का वाहन है; शीतला नंगी दर्शायी गयी हैं, उनके हाथ में झाडू एवं घट तथा सिर पर सूप रहता है; देखिए फार्मेस रसमाला ( जिल्द २, पृ० ३२२ - ३२५ ) एवं ए० सी० सेन कृत 'बंगाली लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर' (शीतला-मंगल कविता, पृ० ३६५-३६७) ।
शीतला सप्तमी : श्रावण कृष्ण ७ पर; व्रतराज ( २३७ - २४१ ) ।
शील - व्रत : (१) यह शिवव्रत ही है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४४-४४५, मत्स्यपुराण १०११३८-३९ से उद्धरण); (२) तृतीया को बिना पका भोजन ( सम्भवतः ) एक वर्ष तक; तिथिव्रत देवता शिव; अन्त में गोदान; कर्ता पुनः जन्म नहीं लेता; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४९), हेमाद्रि (व्रत० १, ४८४, पद्मपुराण से उद्धरण); मत्स्यपुराण ( १०१।७० ) ने इसे 'श्रेयोत्रत' कहा है; मत्स्यपुराण ( १०१।३४) के मत से शीलव्रत पृथक् है । शीलावाप्तिव्रत: आग्रहायणी (मार्गशीर्ष) पूर्णिमा के उपरान्त एक मास तक वाराह की पूजा; घी से वाराह - प्रतिमा का स्नान, अग्नि में घृतार्पण, नैवेद्य घृत-दान; पौष पूर्णिमा एवं इसके दो दिनों पूर्व उपवास एवं एक ब्राह्मण को घृतपूर्ण पात्र एवं सोने का दान कर्ता को शील ( चरित्र एवं नैतिकता ) की प्राप्ति; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।२०८११ - ५ ) ; हेमाद्रि ( व्रत०२, ७८६ - ७८७) ।
शुक्रव्रत : जब शुक्रवार ज्येष्ठा नक्षत्र से युक्त होता है तो नक्त विधि से रहना ; जब सप्तमी को ऐसा शुक्रवार हो तो पीतल या रजत के पात्र में शुक्र की स्वर्णिम प्रतिमा रखकर वस्त्रों, चन्दन - लेप से पूजा की जाती है; प्रतिमा के समक्ष पायस एवं घी रखा जाता है और उसे 'शुक्र दुष्ट ग्रह - प्रभावों को दूर करें तथा स्वास्थ्य एवं दीर्घ आयु दें' नामक प्रार्थना के साथ प्रतिमा सहित दान दे दिया जाता है; वारव्रत; देवता शुक्र हेमाद्रि ( व्रत०२, ५७९-५८०, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण); और देखिए अग्निपुराण ( १९५/५ ) ।
शुद्धि-व्रत : शरद् के अन्तिम ५ दिनों पर या बारह मासों की एकादशियों पर; तिथिव्रत; देवता हरि; जब समुद्र मथा गया तो ५ गौ उदित हुई उनसे पाँच पवित्र वस्तुएँ उत्पन्न हुई, यथा-गोबर, मो-रोचना, दूध, मूत्र, दही एवं घृत; गोबर से श्रीवृक्ष नामक बिल्ववृक्ष उगा, क्योंकि उस पर लक्ष्मी
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