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धर्मशास्त्र का इतिहास ४२४); स्मृतिकौस्तुभ (१०६, १०८)। प्रातःस्नान का आरम्भ चैत्र पूणिमा या एकादशी या वैशाख पूर्णिमा से हो सकता है (निर्णयसिन्धु ९०); वैशाख-स्नान के माहात्म्य के लिए देखिए पद्मपुराण (४१८५। ४१-७०, वैशाख में प्रातःस्नान अश्वमेघ के समान है); शुक्ल ७ को गंगा की पूजा, क्योंकि इसी दिन जह्न ने, जिन्होंने क्रोध में आकर उसे पी लिया था, इसे अपने दाहिने कर्ण से मुक्त किया था, कृत्यकल्पतरु (नयतकालिककाण्ड, ३८७); पद्मपुराण (४।८५।४१-४२); निर्णयसिन्धु (९५); स्मृतिकौस्तुभ (११२); वैशाख शुक्ल ७ को बुद्ध का जन्म हुआ था, उस तिथि से तीन दिनों तक उनकी प्रतिमा का पूजन होना चाहिए, विशेषतः जब पुष्य नक्षत्र हो; कृत्यकल्पतरु (नयतकालिक ३८८); कृत्यरत्नाकर (१६०) । शुक्ल ८ पर अपराजिता नामक दुर्गा की प्रतिमा को कर्पूर एवं जटामांसी से युक्त जल से स्नान कराकर पूजा तथा स्वयं आम्ररस से स्नान करना; निर्णयामृत (५६); स्मृतिकौस्तुभ (११३); वैशाख पूर्णिमा पर ब्रह्मा ने काले एवं श्वेत तिल उत्पन्न किये थे, अतः उनसे युक्त जल से स्नान करना चाहिए, उन्हें अग्नि में अपित करना चाहिए, तिल एवं मधु का दान करना चाहिए; कृत्यकल्पतरु (नयत० ३८८); हेमाद्रि (व्रत० २, १६७-१७१); कृत्यरत्नाकर (१६३-१६४); स्मृतिकौस्तुभ (११५-११६); निर्णयसिन्धु (९७)। श्रीलंका (सीलोन) में वैशाख-पूजा का आरम्भ 'दुत्तगामिनी (लगभग १००-७७ ई०पू०) के अन्तर्गत हुआ; देखिए वालपोल राहुल कृत 'बुद्धिज्म इन सीलोन', पृ० ८० (कोलम्बो, १९५६)।
वैश्वानर-व्रत : (१) प्रथम तिथि को अग्नि-पूजा तथा अग्नि में घी एवं सभी प्रकार के अन्न का होम ; प्रथम तिथि के स्वामी अग्नि को एक कमल के मध्य में बनाना चाहिए ; प्रमुख मन्त्र हैं 'ओम् अग्नये नमः' (पूजा में) तथा 'ओम् अग्नये स्वाहा' (होम में); होम के लिए घृतमिश्रित अन्न, घृतधारा, समिधा आदि ; हेमाद्रि (व्रत० १, ३५४३५५, भविष्यपुराण से उद्धरण); (२) वर्षा ऋतु से आरम्भ कर चारों ऋतुओं में ब्राह्मण को समिधा का दान तथा अन्त में घृतधेनु का दान ; यह व्रत पापमोचन के लिए है; ऋतुव्रत है; कृत्यकल्पतरु (वत० ४४७); हेमाद्रि (व्रत० २, ३६०, पद्मपुराण से उद्धरण )।
वैष्णवक्त : इसमें व्यक्ति आषाढ़ से आरम्भ कर चार मासों तक प्रतिदिन प्रातः स्नान करता है ; अन्त में ब्रह्मभोज, गोदान एवं घृतपूर्ण घट का दान ; मासवत ; देवता विष्णु ; हेमाद्रि (व्रत० २, ८१८, पद्मपुराण से उद्धरण)।
व्यतीपातव्रत : व्यतीपात २७ योगों (विष्कम्भ, प्रीति आदि) में एक है ; भुजबल० (पृ० ३७, श्लोक १३६-१३८) ने इसकी व्याख्या कई प्रकार से की है, वर्षक्रियाकौमुदी (२४२) । इस विषय में देखिए आगे का अध्याय 'काल'। हेमाद्रि (व्रत० २, ७०८-७१७) । व्यतीपात दिन पर एक बड़ी नदी में पंचगव्य के साथ नहाना चाहिए; एक वणिम कमल पर १८ हाथों वाले व्यतीपात की स्वणिम प्रतिमा रखी जानी चाहिए, उसकी पूजा गन्ध आदि से होनी चाहिए; उस दिन उपवास ; एक वर्ष तक ; १३वें व्यतीपात पर उद्यापन' ; घी, दूध, तिल तथा दूध गिराने वाले वृक्षों की समिधाओं से 'व्यतीपाताय स्वाहा' के साथ सौ आहुतियाँ, व्यतीपात सूर्य एवं चन्द्र का पुत्र माना जाता है। देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द २३, पृ० ११७, संख्या २७ शिलालेख, शक संवत् ११९९, १२७७ ई०), जहाँ व्यतीपात-पुण्य का उल्लेख है, और देखिए वही, जिल्द २०, पृ० २९२-२९३, जहाँ व्यतीपात के कई अर्थ दिये गये हैं।
व्यास-पूजा : आषाढ़-पूर्णिमा पर; विशेषतः संन्यासियों द्वारा; स्मृतिकौस्तुभ (१४४-१४५); पुरुषार्थचिन्तामणि (२८४); तमिल देश में यह ज्येष्ठ शुक्ल १५ (मिथुन) पर की जाती है।
व्याहृतिव्रत : चैत्र शुक्ल १ से आरम्भ ; किसी बड़ी नदी में स्नान के उपरान्त सात दिनों तक गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घृत, कुशयुक्त जल का क्रम से पान एवं अन्त में (सातवें दिन) उपवास ; प्रति दिन महाव्या
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