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व्रत-सूची
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से युक्त जल से स्नान करता है; इन दिनों की पूजा में विष्णु के नाम हैं क्रम से कृष्ण, अच्युत, हृषीकेश एवं केशव ; क्रम से शशी, चन्द्र, शशांक एवं निशापति के रूप में चार तिथियों पर चन्द्रमा को अर्घ्य, पूर्णचन्द्र तक कर्ता केवल एक बार भोजन करता है; पंचमी को दक्षिणा ; यह व्रत प्राचीन राजाओं (दिलीप, दुष्यन्त), मुनियों (मरीचि, च्यवन ) एवं उच्च कुलोत्पन्न नारियों (देवकी, सावित्री, सुभद्रा ) द्वारा किया गया था; पाप मुक्ति एवं इच्छा पूर्ति; अग्निपुराण ( १७७ १५-२० ) ; हेमाद्रि ( व्रत०२, ४५८-४६०, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); (४) आषाढ़ से लेकर चार मासों तक प्रातःकाल स्नान; कार्तिक पूर्णिमा पर गोदान एवं ब्रह्म-भोज; विष्णुलोक की प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ४४४, मत्स्यपुराण १०१।३७ से उद्धरण), कृत्यरत्नाकर ( २१९ ); (५) चैत्र शुक्ल ४ पर उपवास, चार रूपों के दलों में हरि-पूजा, यथा-नर, नारायण, हय एवं हंस, या मित्र, वरुण, इन्द्र एवं विष्णु, जिनमें प्रथम दो साध्य होते हैं और अन्तिम दो सिद्ध; १२ वर्षों तक; कर्ता को मोक्ष मार्ग की उपलब्धि और वह सर्वोच्च के बराबर हो जाता है; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१५१।१-८ ) ।
विष्णुशंकरव्रत : इसमें उमामहेश्वरव्रत की विधि प्रयुक्त होती है । इसका सम्पादन भाद्रपद या आश्विन में मृगशिरा, आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा या ज्येष्ठा पर होता है; अन्तर यह है कि विष्णु के वस्त्र पीत होते हैं, विष्णु एवं शंकर के लिए दक्षिणा क्रम से सोना एवं मोती के रूप में होती है; हेमाद्रि ( व्रत० २,५९३-५९४, यहाँ इसे शंकर-नारायण व्रत कहा गया है); कृत्यरत्नाकर ( २८३ - २८३ ); दोनों देवीपुराण को उद्धृत करते हैं । विष्णुशयनोत्सव : आश्विन शुक्ल ११ या १२ पर; निर्णयसिन्धु (१०२), देखिए 'विष्णुशयन,' गत अध्याय ५; मलमास में नहीं होता ।
विष्णुश्श्रृंखल योग : जब द्वादशी एकादशी से युक्त हो एवं द्वादशी को श्रवण नक्षत्र भी हो तो उसे विष्णुशृंखल कहा जाता है; उस दिन उपवास करने से पापमोचन हो जाता है और विष्णु से सायुज्य प्राप्त होता है; हेमाद्रि ( व्रत० १,२९५ ) ; कालविवेक ( ४६४ ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि ( २१६-२१९ ) ।
वीरप्रतिपदा : यह बलिप्रतिपदा ही है; देखिए गत अध्याय १० ।
वीरव्रत : नवमी पर एकभक्त, कुमारियों को भोज, स्वर्णिम घट, दो वस्त्र एवं सोने का दान ; एक वर्ष तक (प्रत्येक नवमी पर कुमारियों को भोज); प्रत्येक जीवन में सुन्दर रूप, शत्रु-विजय की प्राप्ति एवं शंकर की राजधानी में पहुँच ; देवता शिव या उमा या दोनों; मत्स्यपुराण ( १०१।२७-२८ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४३ ) ; हेमाद्रि (व्रत० १, ९५८, पद्मपुराण से उद्धरण), वर्षक्रियाकौमुदी ( ४१ ) ।
वीरासन : एक आसन जो सभी कृच्छों में प्रयुक्त होता है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ३२२, गरुड़पुराण से उद्धरण एवं व्रत ० २,९३२ ) ; यह अघमर्षणव्रत (शंखस्मृति १८ । २ ) में भी प्रयुक्त होता है । सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।
वृक्षोत्सवविधि : वृक्षारोपण को अति महत्ता प्राप्त थी । मत्स्यपुराण ( ७९११ - २० = पद्मपुराण ५।२४।१९२-२११) में वृक्ष के उत्सव की विधि दी हुई है, संक्षेप में यों है -- वाटिका में वृक्षों पर सर्वौषधियुक्त जल छिड़का जाता है, उनके चारों ओर वस्त्र बाँधे जाते हैं; स्वर्णिम सुई से वृक्षों में छेद किया जाता है ( कर्णवेधन के समान ) ; स्वर्णिम शलाका से अंजन लगाया जाता है; वृक्षों के थालों पर ७ या ८ स्वर्णिम फल रखे जाते हैं; वृक्षो के तलों में सोने के टुकड़ों से युक्त घट रखे जाते हैं; इन्द्र, लोकपालों एवं वनस्पति को होम किया जाता है; वृक्षों के बीच से श्वेत वस्त्रों, स्वर्णाभूषणों से युक्त तथा सींगों के पोरों पर स्वर्ण से सुसज्जित गायें ले जायी जाती हैं; वृक्षों का स्वामी पुरोहितों को गोदान, स्वर्णिम सिकड़ियाँ, अंगूठियाँ, वस्त्र आदि देता है और चार दिनों तक दूध से ब्रह्म-भोज करता है, जौ, काले तिलों, सरसों एवं पलाश की समिधा से होम एवं चौथे दिन उत्सव; कत' की सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं । मत्स्यपुराण ( १५४।५१२ ) में ऐसा आया है कि एक पुत्र दस गहरे जला
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