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धर्मशास्त्र का इतिहास
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करना; मौन रूप से प्रतिदिन नैवेद्य ग्रहण; मार्गशीर्ष पौष एवं माघ में भी यही विधि केवल पुष्पों, धूप एवं नैवेद्य में अन्तर हेमाद्रि ( व्रत०२, ६३६-६३८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) । यह द्रष्टव्य है कि यह व्रत कृष्ण की माता देवकी को बताया गया था, जिसे उत्तम पुत्र की कामना थी; उसे वासुदेव के पूजन के लिए कहा गया; जो स्वयं उसके पुत्र थे ।
far-पंचक : कार्तिक के अन्तिम पाँच दिनों को इस नाम से पुकारा जाता है; पाँच उपचारों, यथा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य से पाँच दिनों तक हरि एवं राधा की पूजा; सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। और कर्ता स्वर्ग की प्राप्त करता है; पूजा की कई विधियाँ वर्णित हैं, यथा -- एकादशी को पूजा, द्वादशी को गोमूत्र पीना, त्रयोदशी को दूध पीना, चतुर्दशी को दही खाना, पूर्णिमा को केशव पूजा तथा सायंकाल को पंचगव्य ग्रहण या तुलसी दलों के साथ हरि-पूजा; पद्मपुराण ( ३।२३।१-३३) ।
दिया नदी : नृपभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ राशियों के नाम; कालनिर्णय (३३२); देखिये संक्रान्ति, गत अध्याय -- ११ ।
विष्णुपदव्रत : आषाढ़ में पूर्वाषाढ़ - नक्षत्र पर आरम्भ ; दूध या घी में स्थापित विष्णु के तीन पदों की पूजा; कर्ता केवल रात्रि में हविष्य भोजन करता है; श्रावण में उत्तराषाढ़ पर गोविन्द एवं विष्णु के तीन पदों की पूजा; दान एवं भोजन विभिन्न होते हैं; भाद्रपद में पूर्वाषाढ़ पर, फाल्गुन में पूर्वाफाल्गुनी पर, चैत्र में उत्तराफाल्गुनी पर उसी प्रकार की पूजा कर्ता स्वास्थ्य, समृद्धि प्राप्त करता है और विष्णुलोक जाता है; हेमाद्रि ( व्रत०, २, ६६५-६६७, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) ।
Prograोध : कार्तिक में विष्णु का शयन से उठना ; देखिये ऊपर गत अध्याय - ५; हेमाद्रि ( काल०, ९०३-९०४) ; कृत्यरत्नाकर (४२१-४२५ ) ।
कृपापूर्वक ग्रहण कर के, हे चावल या जौ या नीवार
भगवान् विष्णु मुझ (जंगली चावल, तिनी
fasarfaran : द्वादशी पर उपवास, 'नमो नारायणाय' के साथ सूर्य को अर्घ्य ; श्वेत पुष्पों एवं 'हे देवों में सर्वश्रेष्ठ, हे पृथिवी के आश्रय, मेरे इन पुष्पों को पर प्रसन्न हो' नामक मन्त्र के साथ विष्णु पूजा; व्यंजन, आदि) के साथ श्यामक ( सावाँ ) या साठी ( वह धान जो उपरान्त पारण; विष्णु लोक की प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु १२०४, भविष्यपुराण से ) ।
६० दिनों में हो जाता है) पर निर्वाह करना; इसके ( व्रत, ३४३ - ३४४ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, १२०३ -
विष्णुलक्षवतव्रत : रुई की धूल एवं घास के टुकड़ों को किसी शुभ तिथि एवं लग्न में झाड़ कर एवं स्वच्छ बार ४ अंगुल लम्बा धागा बनाना, इस प्रकार के चार धागों से एक बत्ती (वर्ति) बनती है; इस प्रकार की एक सौ सहस्र बत्तियों को घी में डुबो कर एक चाँदी या पीतल के पात्र में जला कर विष्णु प्रतिमा के समक्ष रखना; उचित काल है कार्तिक, माघ या वैसाख, अन्तिम सर्वोत्तम है; प्रति दिन एक या दो सहस्र बत्तियाँ विष्णु के समक्ष घुमायी जाती हैं; उपयुक्त मासों में किसी पूर्णिमा पर व्रत समाप्ति ; तब उद्यापन; आजकल यह दक्षिण में नारियों द्वारा ही सम्पन्न होता है; वर्ष कृत्यदीपक ( ३८३-३९८ ) ।
विष्णुव्रत : (१) एक कमल पर आकृति खींच कर विष्णु की पूजा; इस व्रत की विधि वैश्वानरव्रत के समान है; हेमाद्रि (व्रत० १,११७७ भविष्यपुराण से उद्धरण); (२) एक वर्ष की १२ द्वादशियों पर उपवास एवं गाय, बछड़े एवं हिरण्य का दान ; कर्ता को परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि ( व्रत० १, १२०२, पद्मपुराण से उद्धरण); वर्षक्रियाकौमुदी ( ७० ); (३) पौष शुक्ल द्वितीया पर प्रारम्भ; एक वर्ष तक ६ मासों को दो अवधियों में बाँट कर कर्ता द्वितीया से चार दिनों तक क्रम से सरसों, तिल, वच (सुगन्धित जड़ वाला पौधा) एवं सर्वोषधियों
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