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व्रत-सूची और सभी पाप कट जाते हैं; कृत्यकल्पतरु ( ४५१ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ९८३, पद्मपुराण से उद्धरण ) ; मत्स्यपुराण (१०११८३); (२) एकादशी को विश्वेदेवों की पूजा; कमल दलों पर उनकी प्रतिमाएँ रखी जाती हैं; तिथिव्रत; देवता, विश्वेदेव; घृत की धार, समिधाओं, दही, दूध एवं मधु का अर्पण; हेमाद्रि ( व्रत० १, ११४८, भविष्यपुराण से उद्धरण) । यह व्रत वैश्वानर - प्रतिपद की भाँति है ।
विश्वेदेव - दशमी - पूजा : कार्तिक शुक्ल १० से प्रारम्भ ; तिथि ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१७६ । १ ) में दस विश्वेदेवों के नाम दिये गये हैं, जो केशव की अभिव्यक्तियाँ हैं; मण्डलों या प्रतिमा-रूपों में उनकी पूजा एक वर्ष तक अन्त में स्वर्ण दान ; विश्वेदेवलोक की प्राप्ति; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१७६११-५) । विष्टिव्रत या विष्टि-भद्रा : करणों का वर्णन 'काल' के अन्तर्गत किया गया है। दो प्रकार के हैं : चर ( चलायमान ) एवं स्थिर । चर करण सात हैं, जिनमें विष्टि भी परिगणित है। देखिये बृहत्संहिता ( ९९।१ ) । विष्टि एक तिथि का अवश है। ज्योतिष के ग्रन्थों ने इसे कुरूप राक्षसी के रूप में माना है । विष्टि में ३० घटिकाएँ होती हैं, जो असमान रूप में उसके मुख, गला, हृदय, नाभि, कटि एवं पूछ में वितरित
गयी हैं ( क्रम से ५, ९, ११, ४, ६ एवं ३ घटिकाएँ); हेमाद्रि ( व्रत०२, ७१९ ७२४, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) ; कालनिर्णय ( ३३०), स्मृतिकौस्तुभ ( ५६५-५६६ ) ने इसे सूर्य की पुत्री, शनि की बहन माना है, उसका मुख गधे का है, उसके तीन पाँव हैं, आदि । विष्टि सामान्यतः नाशकारिणी है और उसे शुभ कृत्यों के लिए त्याज्य ठहराया गया है; किन्तु इसका काल शत्रुओं के नाश एवं विष देने के लिए उपयुक्त माना गया है (बृहत्संहिता ९९।४ ) ; विष्टि दिन पर उपवास; किन्तु यदि विष्टि रात्रि में हो तो दो दिनों तक एक भक्त रहना चाहिये; देवों एवं पितरों की पूजा के उपरान्त दर्भ घास से निर्मित विष्टि-प्रतिमा का पुष्पों आदि से पूजा ; कृशर (चावल, मटर एवं मसाले से बनी खिचड़ी) का नैवेद्य ; काले वस्त्र, काली गाय एवं काले कम्बल का दान ; विष्टि एवं भद्रा का अर्थ एक ही है। स्मृतिकौस्तुभ (५६५-५६८) ।
हेमाद्रि ( व्रत० २,७१९ ७२४ ) ; कालनिर्णय ( ३३० ) ;
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विष्णु : विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१२३ ) व्यवस्था दी है किन अवसरों पर कौन-से विष्णु नाम लिये जाने चाहिये, यथा--नदी पार करते समय ( जब कि मत्स्य, कूर्म एवं वराह के नाम लिये जाते हैं) या जब ग्रह या नक्षत्र दुष्ट पड़ जायें या जब डाकुओं एवं व्याघ्रों आदि का डर हो (नृसिंह का स्मरण ); इस पुराण ( २।१२४ ) में चैत्र से आगे के मासों, या सप्ताहों, नक्षत्रों एवं तिथियों में कहे जाने वाले नामों की तालिका दी है; अध्याय -- १२५ में तीर्थों एवं कुछ देशों में ज ने के समय के नामों की सूची दी हुई है ।
विष्णुत्रिमूतिव्रत: विष्णु के तीन रूप हैं, यथा - वायु, चन्द्र एवं सूर्य; ये तीनों रूप तीन लोकों की रक्षा करते हैं; वे मनुष्यों के शरीर के भीतर बात, पित्त एवं कफ के रूप में विराजमान रहते हैं, इस प्रकार विष्णु के तीन स्थूल रूप हैं; ज्येष्ठ शुक्ल ३ को उपवास कर के विष्णु पूजा; प्रातः वायु-पूजा, मध्याह्न में अग्नि में जौ एवं तिल से होम तथा रात्रि में जल में चन्द्र-पूजा वर्ष भर शुक्ल ३ पर पूजा ; स्वर्ग-प्राप्ति; यदि तीन वर्षों तक किया जाये तो ५००० वर्षों तक स्वर्ग में स्थिति; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३ | १३६।१-२६) विष्णुत्रिरात्रव्रत : कार्तिक शुक्ल नवमी पर; हरि एवं तुलसी की स्वर्णिम प्रतिमा की तीन दिनों तक पूजा तथा तुलसी एवं हरि का विवाह-सम्पादन; निर्णयसिन्धु (२०४ ) :
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farghaatar : कार्तिक की प्रथम तिथि से प्रारम्भ
पंचगव्य से स्नान एवं उसका पान; बाण पुष्पों, चन्दन लेप एवं मधुर एवं पर्याप्त नैवेद्य एक मास तक हिंसा, असत्य, चौर्य, मांस एवं मधु का त्याग ; विष्णु का अटल ध्यान; शास्त्र, यज्ञ या देवताओं की भर्त्सना न
एक वर्ष तक ; से वासुदेव पूजा;
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