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________________ व्रत-सूची २०१ करने के लिए प्रार्थना करता है और गुरु प्रतिमाओं के समक्ष वैसा करता है; हेमाद्रि (वत० १, ३८६-३८९, गरुड़पुराण से उद्धरण)। विधान-द्वादश--सप्तमी : चैत्र से आरम्भ कर १२ मासों की सप्तमी पर; विस्तृत विवेचन; कई नाम प्रसिद्ध हैं, यथा-मरिचसप्तमी, फलसप्तमी, अनोदना-सप्तमी; सभी में सूर्य देवता हैं ; मन्त्र है 'ओं नमः सूर्याय'; हेमाद्रि (व्रत० १, ७९२-८०४, आदित्यपुराण से उद्धरण)। विधान-सप्तमी : तिथि-व्रत; सूर्य देवता; माघ शक्ल ७ पर आरम्भ : माघ से प्रारम्भ कर १२ मासों की सप्तमियों पर १२ वस्तुओं में केवल एक कम से ग्रहण किया जाता है, यथा--अर्क फल का ऊपरी भाग ; ताजा गोबर; मरिच, जल, फल, मूल (मूली), नक्त-विधि, उपवास, एकभक्त, दूध, केवल वायु-ग्रहण ; घी; कालविवेक (४१९); वर्षक्रियाकौमुदी (३७-३८); तिथितत्त्व (३६-३७); कृत्यतत्त्व (४२९-४६०); वर्षक्रियाकौमुदी (३८) ने इसे रविव्रत (जिसका सम्पादन माघ के प्रथम रविवार से आरम्भ कर रविवार को किया जाता है) से विभिन्न माना है। विनायकचतुर्थी : (१) देखिये ऊपर गणेश चतुर्थी (गत अध्याय-८)। (२) चतुर्थी को कर्ता तिल का भोजन दान करता है और स्वयं रात्रि में तिल एवं जल ग्रहण करता है ; दो वर्षों तक ; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ७९, भविष्यपुराण १।२२।१-२ का उद्धरण); हेमाद्रि (व्रत० १, ५१९-५२०) ने इसे गणपति-चतुर्थी कहा है। विनायकवत : फाल्गुन शुक्ल ४ पर आरम्भ ; तिथि ; गणेश, देवता; चार मासों तक ; प्रत्येक शुक्ल ४ पर कर्ता नक्त करता है, तिल से होम करता है, तिल का दान करता है; अन्त में पाँचवें भास में गणेश को स्वर्णिम प्रतिमा को पायस से पूर्ण चार ताम्र पात्रों एवं ति लपूर्ण एक पात्र के साथ दान करता है; सभी बाधाओं से मुक्ति; भविष्योत्तरपुराण (३३।१-१३)। विनायकस्नपन-चतुर्थी : भविष्योत्तरपुराण (३२।१-३०, याज्ञवल्क्यस्मृति ११२७१-२९४ के कतिपय श्लोक उद्धृर हैं) में ; यह शान्ति है, न कि व्रत ; इसका वर्णन शान्ति के विभाग में किया गया है। विभूति-द्वादशी : कार्तिक, वैसाख, मार्गशीर्ष, फाल्गुन या आषाढ़ शुक्ल १० पर; नियमों के पालन का संकल्प ; एकादशी पर उपवास, जनार्दन-प्रतिमा का पूजन ; पाद से शिर तक विभिन्न अंगों की 'विभूतये नमः पादौ विकोशायेति जानुनी' आदि वचनों के साथ पूजा; विष्णु-प्रतिमा के समक्ष जलपूर्ण घट में स्वणिम मछली; रात्रि भर जागरण ; दूसरे दिन प्रातः 'जिस प्रकार विष्णु अपनी महान् अभिव्यक्तियों से विमुक्त नहीं रहते, आप मुझे संसार की चिन्ताओं के पंक से मुक्त करें' नामक प्रार्थना के साथ स्वर्णिम प्रतिमा एवं घट का दान; कर्ता को प्रति मास क्रम से दशावतारों, दत्तात्रेय एवं व्यास की प्रतिमाओं का दान करना चाहिये और यह दान कृत्यद्वादशी पर एक नील कमल के साथ किया जाता है; बारह द्वादशियों की परिसमाप्ति के उपरान्त गुरु या आचार्य को एक लवणाचल, पलंग तथा उसके साथ के अन्य उपकरण, एक गाय, ग्राम (राजा या सामन्त द्वारा) या भूमि (ग्रामपति द्वारा) का दान तथा अन्य ब्राह्मणों को गायों एवं वस्त्रों का दान ; यह विधि तीन वर्षों तक ; पापों से मुक्ति, एक सौ पितरों की मुक्ति आदि; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ३६४-३६७); हेमाद्रि (व्रत० १, १०५७-१०६०) दोनों में मत्स्यपुराण (१००।१-३७) के उद्धरण; पद्मपुराण (५।२०१४-४२) के भी कुछ श्लोक उद्धृत हैं। लवणाचल-दान के लिए देखिये मत्स्यपुराण (८४।१-९)। विरूपाक्षवत : पौष शुक्ल १४ पर; एक वर्ष तक शिव-पूजा; अन्त में सभी सामग्रियों एवं एक ऊँट का किसी ब्राह्मण को दान; राक्षसों एवं रोगों से मुक्ति एवं कामनाओं की पूर्ति ; हेमाद्रि (व्रत० २, १५३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१८६।१-३ से उद्धरण)। ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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