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धर्मशास्त्र का इतिहास ५६) एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (२५, पृ० ३४५); वर्षक्रियाकौमुदी (३६) में आया है कि जब विजया-सप्तमी में सूर्य हस्त नक्षत्र में हो तो उसे महा-महा कहते हैं; पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त शुक्ल ११ विजया के नाम से घोषित है; हेमाद्रि (काल०, ६३३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
विजयासप्तमी : (१) रविवार से युक्त शुक्ल ७ पर; तिथिवत ; सूर्य, देवता; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १२७-१२९) हेमाद्रि (व्रत० १, ६६३-६६४); दोनों भविष्योत्तरपुराण (४३।१-३०) को उद्धृत करते हैं; (२) माघ शुक्ल ७ पर; तिथि ; सूर्य , देवता; उस दिन उपवास एवं सूर्य के एक सहस्र नामों का उच्चारण; हेमाद्रि (व्रत० १, पृ० ७०७-७१६) ने ये नाम दिये हैं; एक वर्ष तक ; रोगों एवं पापों से मुक्ति ; हेमाद्रि (व्रत० १, ७०५- ७१७); (३) गरुडपुराण (१३१३०-७-८) ने एक अन्य प्रकार का व्रत दिय। है जो सात सप्तमियों में किया जाता है; उस दिन उपवास गेहूँ, माष, यव (जौ), स्वस्तिक, पीतल, पत्थरों से पिसा भोजन, मयु, मैथुन, मांस, मदिरा, तेलयुक्त स्नान, अंजन एवं तिल के प्रयोग का त्याग।
विजयायज्ञसप्तमी : माघ शुक्ल ७ पर; तिथि; सूर्य, देवता, एक वर्ष तक ; प्रतिमास में सूर्य का विभिन्न नाम प्रयुक्त ; १२ ब्राह्मणों का सम्मान ; अन्त में आचार्य को एक स्वर्णिम सूर्य प्रतिमा का, स्वर्णिम रथ एवं सारथी के साथ दान; हेमाद्रि (व्रत० १, ७५७-७६०, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
वितस्तापूजा : भाद्रपद के अन्त में शुक्ल १० से आगे ७ दिनों तक वितस्ता (झेलम) का दर्शन, उसमें स्नान, उसका जल ग्रहण, पूजा एवं ध्यान किया जाता है; वितस्ता सती (पार्वती) का अवतार है; वितस्ता एवं सिन्ध के संगम पर विशिष्ट पूजा; नदी के सम्मान में उत्सव, जिसमें अभिनेताओं एवं नर्तकों को सम्मानित किया जाता है; कृत्यरत्नाकर (२८६, ब्राह्मपुराण से उद्धरण)।
विद्याप्रतिपद्-व्रत : किसी मास की प्रथम तिथि पर; विद्या एव धन के इच्छुक व्यक्ति को एक वर्गाकार आकृति में चावल से निर्मित विष्णुएवं लक्ष्मी की प्रतिमाओं की पूजा पूर्णरूप से खिले कमलों (१००० या कुछ कम) दूध एवं पायस से करनी चाहिये ; उनके पार्श्व में सरस्वती की भी पूजा होनी चाहिये, चन्द्र की पूजा भी की जाती है ; गुरु-सम्मान ; उस दिन उपवास ; दूसरे दिन विष्णु-पूजा, आचार्य को स्वर्ण दान करके भोजन; हेमाद्रि (व्रत० १, ३३८-३४०, गरुडपुराण से उद्धरण)।
विद्यावाप्तिवत : पौष पूर्णिमा के उपरान्त माघ की प्रथम तिथि से एक मास तक ; तिल से हयग्रीव की पूजा; तिल से होम ; प्रथम तीन दिनों तक उपवास ; यह मासवत है; कर्ता विद्वान् हो जाता है ; हेमाद्रि (व्रत० २,७९६-७९७), विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३; २०७।१-५ मे उद्धरण) ।
विद्यावत : किसी मास की द्वितीया पर श्वेत चावल से वर्गाकार आकृति खींच कर, उसके मध्य में अष्ट दल कमल बना कर, उसके बीजकोष पर कमलयुक्त लक्ष्मी की आकृति खींची जानी चाहिये, आठ शक्तियों (यथा-सरस्वती, रति, मैत्री, विद्या आदि) की आकृति बना कर कमल-दलों पर रखनी चाहिये, 'ओं सरस्वत्यै नमः' आदि के साथ शक्तियों को क्रमशः प्रणाम ; चारों दिग्पालों एवं दिशा-कोणों के रक्षकों की आकृतियाँ बनायी जाती हैं ; मण्डल में गुरु-रूप में चारों (व्यास, ऋतु, मनु, दक्ष), वसिष्ठ आदि को स्थापित किया जाता है; विभिन्न पुष्पों से इनकी पूजा की जाती है ; श्रीसूक्त (हिरण्यवर्णा हरिणाम्' से आरम्भ होने वाले खिलसूक्तों में एक), पुरुषसूक्त (ऋ० १०.९०) एवं विष्णु के स्तोत्र पढ़े जाते हैं। पुरोहितों को एक गाय, बैल एवं जलपूर्ण पात्र दिये जाते हैं ; भुने हुए चावलों से युक्त पाँच पात्र (लाई से भरे पाँच कूड ) तिल, हल्दी-चूर्ण (स्त्री सम्पादिका द्वारा),सोना किसी गृहस्य को दिया जाता है तथा भूखे लोगों को भोजन दिया जाता है ; शिष्य गुरु से विद्यादान
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