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व्रत-सूची
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वारिवत: एक मासवत; लगता है देवता ब्रह्मा हैं; चैत्र,ज्येष्ठ, आषाढ़ एवं माध या पौष के चार मासों में, अयाचित-विधि; अन्त में वस्त्रों, तथा भोजन से आच्छादित घट तथा तिल एवं हिरण्य से युक्त पात्र का दान; ब्रह्मलोक की प्राप्ति; हेमाद्रि (वत० २, ८५७, पद्मपुराण से उद्धरण)।
वारणी : चैत्र कृष्ण १३ को, जब वह शताभिषज नक्षत्र (जिसके देवता वरुण हैं) में पड़े तो उसे वारुणी कहते हैं, जो एक करोड़ सूर्य-ग्रहण के समान है; यदि यह इसके साथ शनिवार को पड़े तो वह महा-बारुणी कही जाती है ; इन सब बातों के साथ यदि शुभ-योग पड़े तो इसे महा-महा-वारुणी कहा जाता है; वर्षक्रियाकौमुदी (५१८-५१९); कृत्यतत्त्व (४६३); रमृतिकौस्तुभ (१०७); गदाधरपद्धति (६११, स्कन्दपुराण से उद्धरण) : कालतत्त्वविवेचन (१८९-१९०) ।
वासुदेवद्वादशी : आषाढ़ शुक्ल १२ पर ; तिथि ; देवता, वासुदेव ; वासुदेव के विभिन्न नामों एवं उनके व्यूहों के साथ पाद से शिर तक के सभी अंगों की पूजा; जलपात्र में रख कर तथा दो वस्त्रों से ढंक कर वासुदेव की स्वर्णिम प्रतिमा का पूजन तथा उसका दान ; यह व्रत नारद द्वारा वसुदेव एवं देवकी को बताया गया था; कर्ता के पाप कट जाते हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है या नष्ट हुआ राज्य पुनः मिल जाता है ; हेमाद्रि (वत० १, १०३६१०३७, बहुत-से श्लोक वराहपुराण के अध्याय ४६ के हैं)।
विघ्न-विनायक-व्रत : फाल्गुन से चार मासों के लिए; अहल्याकामधेनु (पाण्डुलिपि, ३५६)।
विजय : (१) आश्विन शुक्ल १० पर जब सूर्यास्त के उपरान्त तारागण उदित हो रहे हों, यह समय सभी कृत्यों के लिए अत्यन्त शुभ माना जाता है; स्मृतिकौस्तुभ (३५३); (२) यह नाम दिन के ११ वें मुहूर्त का भी है जब कि दिन १५ मुहूर्तों में विभाजित किया जाय ; स्मृतिकौस्तुभ (३५३) ।
विजय-धूप : हेमाद्रि (वत' २, ५१, भविष्यपुराण १।६८।३-४) में वर्णित ।
विजयद्वादशी : (१) एकादशी पर संकल्प ; श्रवण-नक्षत्र वाली द्वादशी पर उपवास ; विष्णु की स्वर्णिम प्रतिमा का निर्माण, जो पीत वस्त्र से आच्छादित रहती है; अर्घ्य के साथ पूजा; रात्रि में जागरण; दूसरे दिन सूर्योदय के समय प्रतिमा का दान ; श्रवण-युक्त द्वादशी, जब कि सूर्य सिंह राशि में हो तथा चन्द्र श्रवण में हो भाद्रपद को छोड़ अन्य समय सम्भव नहीं होती; हेमाद्रि (व्रत० १, ११३६-११३८, अग्निपुराण से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (२८७-२८८); (२) जैसा कि हेमाद्रि (व्रत० १, ११३८-११४०) में वर्णित ; (३) फाल्गुन शुक्ल ११ या १२, जब कि वह पुष्य-नक्षत्र से युक्त हो, विजय की संज्ञा से विख्यात है; (४) भाद्रपद शुक्ल या कृष्ण ११ या १२, यदि बुधवार एवं श्रवण-नक्षत्र से युक्त हो तो विजय कहलाती है ; शुक्ल के व्रत से स्वर्ग-प्राप्ति, कृष्ण के व्रत से पापमोचन ; विष्णु देवता; हेमाद्रि (व्रत० १, ११५२-११५५, ब्रह्मवैवर्त से उद्धरण); कृत्यकल्पतरु (व्रत, ३४८-३५०, आदित्यपुराण से उद्धरण)।
विजयविधि : बारव्रत ; रविवार को प्राजापत्य (रोहिणी) नक्षत्र से युक्त शुक्ल ७ पर; सूर्य देवता; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १७-१८)।
विजयव्रत : इन्द्र के गज ऐरावत तथा की, मुख में लगे पट्टे के साथ तथा इन्द्र के अश्व उच्चैश्रवा की प्रतिमा ; इससे विजय की प्राप्ति; हेमाद्रि (वत० १, ५७६, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
विजया : यह नाम कई तिथियों को प्राप्त है, यथा--शुक्ल ७ जो रविवार को पड़ती है भविष्योत्तरपुराण ४३।२; वर्षक्रियाकौमुदी ९; हेमाद्रि, काल, ६२५; पुरुषार्थचिन्तामणि १०५; और देखिये विजयविधि के अन्तर्गत ; गरुडपुराण (१११३६।१-२) के अनुसार यदि द्वादशी या एकादशी श्रवण-नक्षत्र से युक्त हो तो उसे विजया करते हैं; कृत्य कल्पतरु (व्रत०, ३४९); कृत्यरत्नाकर (२८७-२९१)। देखिये एपिप्रैफिया इण्डिका (३, ५३
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