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व्रत-सूची शासनपर्व (७१।४१ ) एवं मत्स्यपुराण ( ५३।१३ ) में भो प्रयुक्त हुआ है; देखिये इस ग्रन्थ का खण्ड २, पृ०
८८० ।
वर्णव्रत : यह चतुर्मूतिव्रत है जो चैत्र शुक्ल से चार मासों तक चलता है; चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ में कर्ता उपवास करता है और क्रम से वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध को पूजता है तथा दान देता है, दान की वस्तुओं में कई प्रकार पाये जाते हैं, यथा ब्राह्मण को यज्ञ की उपयोगी वस्तुएँ, क्षत्रिय को युद्धोपयोगी वैश्य को वाणिज्योपयोगी तथा शूद्र को श्रमोपयोगी वस्तुएँ दी जाती हैं; कर्ता को इन्द्रलोक प्राप्त होता है; हेमाद्रि ( व्रत०२, ८२८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) ।
वर्धापनविधि : ( जन्मतिथि कृत्य एवं उत्सव ) । शिशु के विषय में प्रत्येक मास में जन्मतिथि पर ; राजा के लिए प्रतिवर्ष किया जाता है; नील या कुंकुंकुम से १६ देवियों (यथा--कुमुदा, माधवी, गौरी, रुद्राणी, पार्वती) के चित्र बनाये जाते हैं तथा एक वृत्त के बीच में सूर्य-चित्र बनाया जाता है, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, ऊँचे संगीत से उत्सव मनाया जाता है, बच्चे को स्नान करा कर देवियों की पूजा की जाती है; सींक से बने पात्रों ( छितनियों) में मूल्यवान् पदार्थ, भोजन-सामग्री, पुष्प, फल आदि रख कर प्रत्येक देवी के सम्मान में ब्राह्मणों एवं सधवा नारियों को 'कुमुदा आदि देवियाँ मेरे बच्चे को स्वास्थ्य, सुख एवं दीर्घायु दें' के साथ, दान के रूप में दे दिया जाता है। माता-पिता अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करते हैं; राजा के विषय में इन्द्र एवं लोकपालों को हविष्य दिया जाता है तथा वैदिक मन्त्र ( यथा - ऋ० ६।४७ ११, १०।१६१।४) पढ़े जाते हैं; हेमाद्रि ( व्रत० २,८८९-८९२, अथर्वण-गोपथब्राह्मण एवं स्कन्दपुराण से उद्धरण) ।
वर्षव्रत : चैत्र शुक्ल नवमी से आरम्भ; तिथिव्रत हिमालय, हेमकूट, श्रृंगवान्, मेरु, मलयवान्, गन्धमादन नामक बड़े पर्वतों की पूजा; उस दिन उपवास; अन्त में जम्बूद्वीप की रजत आकृति का दान हेमाद्रि ( व्रत० १, ९५९, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) । ब्रह्मपुराण (१८१६ ), मत्स्यपुराण ( ११३।१०-१२ ) एवं वायुपुराण (१८) में हिमालय, हेमकूट आदि को वर्षपर्वत की संज्ञा दी गयी है ।
वल्लभोत्सव : महान् वैष्णव आचार्य वल्लभ के सम्मान में किया जाने वाला उत्सव ; वल्लभ का जन्म सन् १४९७ ई० में माना जाता है; इन्होंने बहुत-से ग्रन्थ लिखे हैं और धर्म के प्रवृत्तिमार्गी पक्ष का समर्थन किया है और भागवत धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। यह उत्सव चैत्र कृष्ण एकादशी को होता है ।
वसन्तपञ्चमी : माघ शुक्ल पंचमी पर; तिथिव्रत; विष्णु-पूजा; ब्रतरत्नाकर ( २२० ) ।
वसन्तोत्सव : वायुपुराण ( ६।१०-२१ ) में वसन्त के आगमन पर एक कवित्वमय विस्तृत विवरण उपस्थित किया गया है; मालविकाग्निमित्र एवं रत्नावली नामक नाटक इसी अवसर पर खेले गये थे, जैसा कि दोनों की प्रस्तवन में उद्घोषित हुआ है; प्रथम नाटक के तृतीय अंक में ऐसा चित्रित है कि इस उत्सव में लाल अशोक - पुष्प अपने प्रिय पात्रों के पास भेजे जाते हैं तथा उच्च कुल की पत्नियाँ अपने पतियों के साथ झूले पर बैठती हैं। निर्णयसिन्धु (२२९) ने इसकी तिथि चैत्र कृष्ण १ ( पूर्णिमान्त गणना के अनुसार ) मानी है, किन्तु पुरुषार्थ - चिन्तामणि (१००) ने निर्णयामृत के अनुसार इसे माघ शुक्ल पंचमी की तिथि पर रखा है । पारिजातमंजरी - नाटिका का प्रथम अंक चैत्र पर्व में वसन्तोत्सव कहा गया है; एपिग्रैफिया इण्डिका ( जिल्द ८, पृ० ९९ ) । वसुन्धरादेवीव्रत : अश्वघोष - नन्दिमुख - अवदान में उल्लिखित ; देखिये जे० आर० ए० एस० (जिल्द ८,
पृ० १३-१४ ) ।
वसुव्रत : (१) आठ वसुओं की, जो वास्तव में, वासुदेव के ही रूप हैं, पूजा, चैत्र शुक्ल अष्टमी पर उपवास ; एक वृत्त में खिचे चित्र या प्रतिमाएँ; अन्त में गोदान; धन, अनाज एवं वसुलोक की प्राप्ति । आठ वसु ये हैं-घर.
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