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धर्मशास्त्र का इतिहास
वरचतुर्थी : मार्गशीर्ष शुक्ल ४ से प्रारम्भ; तिथिव्रत; प्रतिमास गणेश-पूजन तथा उस दिन एकभक्त किन्तु क्षार एवं लवण का प्रयोग नहीं; चार वर्षों तक, किन्तु दूसरे वर्ष में नक्त, तीसरे में अयाचित एवं चौथे में उपवास ; हेमाद्रि ( व्रत० १,५३०-३१), स्कन्दपुराण से उद्धरण ) ; कृतरत्नाकर ( ५०४ ) ; कालविवेक ( १९० ); वर्ष क्रियाकौमुदी ( ४९८ ) 1
वरदचतुर्थी : माघ शुक्ल ४ पर; तिथिव्रत ४ को वरद ( अर्थात् विनायक ) की पूजा तथा ५ को कुन्द पुष्पों से पूजा, समय प्रदीप ( पाण्डुलिपि ४७ बी० ) ; कृत्यरत्नाकर (५०४) एवं वर्षक्रियाकौमुदी ( ४९८ ) का कथन है कि वरचतुर्थी केवल चतुर्थी तक सीमित है तथा पंचमी को कुन्द पुष्पों से पूजा श्रीपंचमी कहलाती है और 'वट' का अर्थ है 'विनायक' ।
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वरदाचतुर्थी : माघ शुक्ल ४ पर; तिथि गौरी देवता; विशेषतः नारियों के लिए; गदाधरपद्धति (कालसार ७७ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ५३१ ) में गौरी चतुर्थी का उल्लेख है, जो यही है । निर्णयसिन्धु (१३३) के अनुसार भाद्रपद शुक्ल ४ वरदचतुर्थी है, किन्तु पुरुषार्थं चिन्तामणि ( ९५ ) के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल ४ को इस नाम से पुकारा जाता है।
वरनवमी : प्रत्येक नवमी पर ९ वर्षों तक केवल आटा पर जीविका निर्वाह किया जाता है; तिथिव्रत; देवी; सभी कामनाओं की पूर्ति; यदि कर्ता जीवन भर बिना अग्नि पर पकाये नवमी पर भोजन करे तो उसे इहलोक एवं परलोक में अनन्त फल प्राप्त होते हैं; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० २९६ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ९३७, भविष्यपुराण से उद्धरण) ने इसे 'वरव्रत' नाम दिया है ।
वरलक्ष्मीव्रत : श्रावण पूर्णिमा पर जब शुक्र पूर्व में स्थित रहता; घर के उत्तर पूर्व एक मण्डप का निर्माण, वहाँ कलश स्थापन जिस पर वरलक्ष्मी का आवाहन किया जाता है और श्रीसूक्त के साथ पूजा की जाती है; साम्राज्यलक्ष्मी - पीठिका ( पृ० १४७ - १४९ ) ।
वरव्रत : (१) देखिए ऊपर वरनवमी ; ( २ ) सात दिनों तक उपवास करके किसी ब्राह्मण को घृतपूर्ण घट देने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है; सम्वत्सरव्रत; ब्रह्मा, देवत। ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४९ ) ; मत्स्यपुराण ( १०१।६८ ) ने इसे घृतव्रत कहा है; हेमाद्रि ( व्रत०२, ८८६, पद्मपुराण से उद्धरण) ।
वराटिका सप्तमी : किसी संप्तमी तिथि पर ; कर्ता को केवल तीन वराटिकाओं ( कौड़ियों) से क्रय किये हुए भोजन पर निर्वाह करना होता है, चाहे वह भोजन उसके लिए अनुचित ही क्यों न हो; सूर्य देवता; फल नहीं घोषित है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० १८४ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ७२६, भविष्यपुराण से उद्धरण) ।
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वराहद्वादशी : माघ शुक्ल १२ पर; तिथिव्रत; विष्णु के वराह रूप की पूजा; एकादशी पर संकल्प एवं पूजा; एक घट में, जिसमें सोने के टुकड़े या चाँदी या ताम्र के टुकड़े डाले रहते हैं तथा सभी प्रकार के बीज छोड़ दिये गये रहते हैं, वराह की एक स्वर्णिम प्रतिमा रख दी जाती है और पूजा की जाती है; पुष्पों के मण्डप में जागर; दूसरे दिन प्रतिमा किसी विद्वान् एवं चरित्रवान् ब्राह्मण को दे दी जाती है; सौभाग्य, घन, रूप-सौन्दर्य, आदर तथा पुत्रों की प्राप्ति होती है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ३१९ - ३२१ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १,१०२७-१०२९), दोनों ने वराहपुराण (४१।१-१०) को उद्धृत किया है; गदाधरपद्धति (कालसार, १५१-१५२) ।
वरुणव्रत : यदि कोई रात्रि भर पानी में खड़ा होकर दूसरे दिन प्रातः गोदान करता है तो वह वरुण लोक जाता है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४५०, ५२ वाँ षष्ठि व्रत ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २,९०५, पद्मपुराण से उद्धरण ) ; मत्स्यपुराण ( १०१।७४; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३|१९५१ - ३ ) में कुछ विभिन्न बातें हैं; भाद्रपद के आरम्भ से पूर्णिमा तक वरुण - पूजा; अन्त में छत्र, चप्पलों एवं दो वस्त्रों के साथ जलधेनु का दान । 'जलधेनु' शब्द अनु-
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