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________________ व्रत-सूचा लिंग पर कुंकुम का छिड़काव, इसी प्रकार वर्ष भर विभिन्न मासों में विभिन्न चूर्ण, धूप, नेवैद्य आदि ; महापातकी भो रुद्रलोक पहुँच जाता है; हेमाद्रि ( व्रत० २, ५०-५६, कालोत्तर से उद्धरण) । लिंग का निर्माण पवित्र भस्म, सूखे गोबर, बालू या स्फटिक से हो सकता है, सर्वोत्तम उस मिट्टी से जो उन पहाड़ियों से प्राप्त होती है, जहाँ से नर्मदा बहती है । लिंगार्चन : कार्तिक शुक्ल १३ पर जब कि शनिवार हो; शिव के एक सौ नामों का जप पंचामृत से लिंग स्नान; प्रदोष के समय लिंग-रूप में शिव-पूजा; स्कन्दपुराण (१।१७।५९-६१ ) ने वर्णन किया है और सौ नाम दिये हैं । लीलाव्रत : यह नीलव्रत ही है, देखिए । लोकव्रत : चैत्र शुक्ल से प्रारम्भ; उस दिन से सात दिनों तक क्रम से गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी, कुश डाला हुआ जल एवं उपवास का प्रयोग किया जाता है; महा व्याहृतियों (भूः भुवः स्वः आदि) के साथ तिल-होम किया जाता है; अन्त में वस्त्र, पीतल, गौओं का दान होता है; कर्ता समाट् हो जाता है; हेमाद्रि ( व्रत० २,४६३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१६२।१-७ से उद्धरण) । १९५ तक ; लोहाभिसारिक कृत्य : अन्य रूपान्तर हैं 'लोहाभिहारिक' एवं लौहाभिसारिक; आश्विन शुक्ल १ से ८ विजये च्छुक राजा को यह कृत्य करना चाहिए; निर्णयसिन्धु ( १७८-१७९ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( ३३२-३३६ ) ; राजनीतिप्रकाश (४४४ - ४४६ ) ; समयमयूख ( २८ - ३२ ) ; पुरुषचिन्तामणि ( ५९, ७०-७२ ) । दुर्गा की स्वर्णिम या रजत या मिट्टी की प्रतिमा का पूजन, इसी प्रकार राजकीय आयुधों एवं प्रतीकों की मन्त्रों से पूजा; एक कथा है कि लोह नामक एक राक्षस था, जो देवों द्वारा टुकड़ों में रूपान्तरित कर दिया गया, संसार में जो भी लोह (लोहा) एवं इस्पात है, वह सब उसी के अंगों के अंश हैं। 'लोहाभिसार' का अर्थ है लोहे के आयुधों ( हथियारों अथवा अस्त्रों) पर चिह्न लगाना या उन्हें चमकाना ( 'लोहाभिहारोस्त्रभृतं राज्ञां नीराजनो विधि : ' - अमरकोश ) । जब कोईराजा आक्रमण के लिए प्रस्थान करता था तो उस पर पवित्र जल छिड़कने या दीपों की आरती करने को लोहाभिसारिक-कर्म कहा जाता था। उद्योगपर्व ( १६० - ९३ ) में हम पाते हैं : 'लोहाभिसारो निर्वृत्तः... ' । नीलकण्ठ ने व्याख्या दी है कि इसमें हथियारों के समक्ष दीपों की आरती उतारना एवं देवताओं का आहवान करना होता है । लोहित्यस्नान : : ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान । देखिए 'ब्रह्मपुत्रस्नान', ऊपर | वंजुलीव्रत : वंजुली आठ महती द्वादशियों में परिगणित है, देखिए गत अध्याय - ५ | वंजुली वह द्वादशी है जो सम्पूर्ण दिन (सूर्योदय से सूर्यास्त तक ) रहती है और दूसरे दिन तक रहती है जिससे द्वादशी को उपवास करना सम्भव हो सके और दूसरी तिथि पर पारण हो सके, किन्तु द्वादशी पर ही ; नारायण की स्वर्णिम प्रतिमा की पूजा; सहस्रों राजसूय यज्ञों के समान पुण्य की प्राप्ति; निर्णयसिन्धु (४८); स्मृतिकौस्तुभ ( २५२-२५३ ) । वट सावित्रिव्रत : देखिए अध्याय ---- ४ | वत्सराधियपूजा : ( वर्ष के अधिपति की पूजा ) चैत्र का वह दिन ( जब वर्षारम्भ होता है) वर्ष के अधिपति को निश्चित करता है; देखिये गत अध्याय- ४; स्मृतिकौस्तुभ ( ८७ ) ; पुरुषचिन्तामणि (५६) । वत्सद्वादशी : कार्तिक कृष्ण १२ को ऐसा कहा जाता है; बछड़े सहित गाय को चन्दन - लेप से अलंकृत किया जाता है, उसे मालाओं से, खुरों के पास ताम पत्र में अर्ध्य से, माष से बनी वृत्ताकार रोटी से सम्मानित किया जाता है; उस दिन तेल से बने, बटुली में पकाये भोजन से तथा दूध, घी, दही एवं मक्खन से दूर रहा जाता है; समयमयूख (९१-९२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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