________________
१९४
धर्मशास्त्र का इतिहास ललिताव्रत : माघ शुक्ल ३ पर; दोपहर को तिल एवं आमलक से किसी नदी में स्नान ; पुष्पों आदि से देवी-पूजा; तामपत्र में जल, अक्षत एवं सोना रख कर एक ब्राह्मण के समक्ष रखा जाता है, जो मन्त्र के साथ कर्ता पर जल छिड़कता है ; स्त्री सम्पादिका सोना का दान करती है, कुश डुबोये जल को पोती है, देवी-ध्यान में पृथिवी पर शयन करती रात्रि बिताती है ; दूसरे दिन ब्राह्मणों एवं एक सधवा नारी का सम्मान ; एक वर्ष तक, प्रत्येक मास देवी के १२ नामों में एक का प्रयोग (यथा-पहले मास में ईशानी, ८ वें में ललिता तथा १२ वें में गौरी), बारह मासों में शुक्ल ३ पर उपवास तथा १२ वस्तुओं में क्रम से एक का सेवन, यथा--कुश से पवित्र किया हुआ जल, दूध, घी आदि ; अन्त में एक ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी को सम्मान ; सम्पादिका को पुत्रों, रूप, स्वास्थ्य एवं सधवापन की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत० १, ४१८-४२१, भविष्योत्तर पुराण से उद्धरण)। अग्निपुराण (१७८।१-२) ने ललिता-तृतीया का उल्लेख किया है और कहा है कि चैत्र शुक्ल ३ को गौरी शिव से विवाहित हुई थीं। यही बात मत्स्यपुराण (६०।१४-१५) में भी है; मत्स्यपुराण (६०।११) में आया है कि सती को ललिता कहा जाता है, क्योंकि वह सभी लोकों में सर्वोत्तम है और रूप में सब से बढ़कर है। ब्रह्माण्डपुराण के अन्त में ४४ अध्यायों में ललिता सम्प्रदाय का विवेचन है।
ललिताषष्ठी : विशेषतः नारियों के लिए ; भाद्रपद ६ पर एक नवीन बाँस की फुफेली (पात्र) में किसी नदी का बालू एकत्र कर उससे पाँच पिण्ड बनाकर उस पर ललिता देवी की पूजा विभिन्न प्रकार के २८ या १०८ पुष्पों एवं विभिन्न खाद्य पदार्थों के नैवेद्य से की जाती है ; उस दिन सखियों के साथ रात्रि में जागर; सप्तमी को सभी नैवेद्य किसी ब्राह्मण को अर्पित ; कुमारियों को भोजन, ५ या १० ब्राह्मण गृहणियों को भोजन तथा 'ललिता मुझ पर प्रसन्न होवे' के साथ उनकी विदाई; हेमाद्रि (व्रत १. ६१७-६२०, भविष्योत्तरपुराण ४१११-१८ से उद्धरण); व्रत रत्नाकर (२२०-२२१) का कथन है कि यह गुर्जर देश में अति प्रसिद्ध है।
ललितासप्तमी : व्रतकालविवेक (१३) में उल्लिखित ; षष्ठी से युक्त सप्तमी को वरीयता प्राप्त है।
लवणदान : मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर जब मृगशिरा-नक्षत्र होता है; चन्द्रोदय काल पर स्वर्णिम केन्द्रवाले एक पात्र में एक प्रस्थ भूमि से निकाले हुए लवण का किसी ब्राह्मण को दान ; इससे रूप एवं सौभाग्य की प्राप्ति; विष्णुधर्मसूत्र (९०११-२); स्मृतिकौस्तुभ (४३०) तथा पुरुषार्थ-चिन्तामणि (३०६) ।
लवण-संक्रान्तिवत : संक्रान्ति दिन पर स्नान के उपरान्त कुंकुम से अष्टदल कमल एवं बीज कोष की आकृति बनायी जाती है ; सूर्य के चित्र की पूजा; चित्र के समक्ष लवणपूर्ण पात्र एवं गुड़ रखा जाता है और पात्र दान में दे दिया जाता है; एक वर्ष तक; अन्त में सूर्य की स्वणिम प्रतिमा, एक गाय आदि का दान ; यह संक्रान्तिव्रत है; हेमाद्रि (व्रत० २, ७३२-७३३, स्कन्दपुराण से उद्धरण)।
लावण्यगौरीवत : चैत्र शुक्ल ५ पर; तमिल लोगों द्वारा मनाया जाता है।
लवण्यव्रत : कार्तिक पूर्णिमा के उपरान्त प्रथम। से; किसी वस्त्र पर प्रद्युम्न का चित्र खींचकर या उसकी प्रतिमा की पूजा; नक्त-विधि; जब मार्गशीर्ष का आरम्भ हो तो तीन दिनों का उपवास, प्रद्युम्न-पूजा; घी से अग्नि में होम, लवण-युक्त भोजन ब्राह्मणों को; एक प्रस्थ लवण-चूर्ण, दो वस्त्र, सोना, पीतल-पात्र का दान ; एक मास तक ; यह मास-व्रत है; इससे रूप एवं स्वर्ग की प्राप्ति ; हेमाद्रि (व्रत० २, ७८५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।२०३।१-७ उद्धरण)।
लावण्यावाप्तिवत : हेमाद्रि (बत० २, ७८५) ने यह नाम दिया है ; देखिए ऊपर।
लिंगव्रत : कार्तिक शुक्ल १४ से आरम्भ ; शिव-पूजा; नक्त-विधि से भोजन; चावल के आटे से एक रत्नि (केहुनी से बँधी मुष्टि तक की दूरी) लम्बा लिंग बनाना; लिंग पर एक प्रस्थ तिल डालना; मार्गशीर्ष शुक्ल १४ को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org