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धर्मशास्त्र का इतिहास
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तक; अन्त में सोने या चाँदी के दो रोटकों का दान व्रतार्क ( पाण्डुलिपि, ३० बी० - ३२बी० ) ; बित्व रोटकव्रत नाम भी है।
रोहिणीचन्द्र-शयन : मत्स्यपुराण (५७) ने इसका विस्तृत वर्णन किया है ( श्लोक १ - २८ ) ; पद्मपुराण ( ४/२४११०१-१३० ) में भी ये श्लोक पाये जाते हैं; यहाँ पर चन्द्र नाम के अन्तर्गत विष्णु की पूजा; जब पूर्णिमा पर सोमवार हो, या पूर्णिमा पर रोहिणी नक्षत्र हो तो पंचगव्य एवं सरसों से स्नान करना चाहिए तथा 'आपायस्व' (ऋ० १।९१ १६, सोम को सम्बोधित) मन्त्र को १०८ बार कहना चाहिए तथा एक शूद्र केवल 'सोम को प्रणाम, विष्णु को प्रणाम' कहता है; पुष्पों एवं फलों से विष्णु-पूजा, सोम के नामों का वाचन तथा रोहिणी ( सोम की प्रिय पत्नी) को सम्बोधन; कर्ता को गोमूत्र पीना चाहिए, भोजन करना चाहिए, किन्तु मांस नहीं खाना चाहिए, केवल २८ कौर खाने चाहिए और चन्द्र को विभिन्न पुष्प अर्पित करने चाहिए; एक वर्ष तक; अन्त में एक पलंग, रोहिणी तथा चन्द्र की स्वर्णिम प्रतिमाओं का दान ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए: 'हे कृष्ण, जिस प्रकार रोहिणी तुम्हें, जो कि सोम हो, त्याग कर नहीं भागती है इसी प्रकार मैं भी धन से पृथक् न किया जाऊँ'; इससे रूप, स्वास्थ्य, दीर्घायु एवं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है; कृत्यकल्पतरु ( व्रतकाण्ड, ३७८-३८२, मत्स्यपुराण का उद्धरण); हेमाद्रि ( व्रत०२, १७५ १७९, पद्मपुराण ५।२४।१०१-१३० से वे ही श्लोक ) ; कृत्यकल्पतरु (व्रत) एवं हेमाद्रि ( व्रत ) ने इसे चन्द्ररोहिणीशयन कहा है। भविष्योत्तरपुराण ( २०६ | १-३०) ने भी इसे मत्स्यपुराण की भाँति उल्लिखित किया है।
रोहिणीद्वादशी : श्रावण कृष्ण ११ पर कर्ता ( पुरुष या स्त्री) किसी तालाब या उसके समान किसी अन्य स्थान पर गोबर से एक मण्डल बनाता है तथा चन्द्र एवं रोहिणी की आकृति बना कर पूजता है, नैवेद्य अर्पण कर उसे किसी ब्राह्मण को दे देता है, इसके उपरान्त तालाब में प्रवेश करता है, चन्द्र एवं रोहिणी का ध्यान करता है, जल में ही पिसे हुए भाष की १०० गोलियाँ घी के साथ पाँच मोदक खाता है, बाहर निकलने पर किसी ब्राह्मण को भोजन एवं वस्त्र देता है; ऐसा प्रति वर्ष किया जाना चाहिए; हेमाद्रि ( व्रत० १,१११३ - १११४,
भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) ।
रोहिणी व्रत : एक नक्षत्र व्रत; पाँच रत्नों से जड़ी ताम्र या स्वर्णिम रोहणी- प्रतिमा का निर्माण तथा दो वस्त्रों, पुष्पों, फलों एवं नेवैद्य से पूजा; उस दिन नवत - विधि से भोजन; दूसरे दिन किसी विद्वान् गृहस्थ ब्राह्मण को प्रतिमादान; रोहिणी श्रीकृष्ण के जन्म के समय का नक्षत्र है; हेमाद्रि ( व्रत० २,५९८-५९९, स्कन्दपुराण से उद्धरण) । रोहिणीस्नान : एक नक्षत्रव्रत; कर्ता एवं पुरोहित कृत्तिका पर उपवास करते हैं और रोहिणी पर कर्ता पाँच घड़े जल से, जब वह दूध फेंकती वृक्ष - शाखाओं या पल्लवों, श्वेत पुष्पों, प्रियंगु एवं चन्दन - लेप से अलंकृत चावल - राशि पर खड़ा रहता है, नहलाया जाता है; विष्णु, चन्द्र, वरुण, रोहिणी एवं प्रजापति की पूजा; घी एवं सभी प्रकार के बीजों से उन सभी देवों को होम; मिट्टी, घोड़े के केश एवं खुर (टप) से बने तीन भागों में विभाजित एक सींग में एक बहुमूल्य पत्थर पहनना चाहिये; ऐसा करने से पुत्रों, धन, यश की प्राप्ति होती है माद्रि ( व्रत० २,५९९-६००, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) ।
रोहिण्याष्टमी : भाद्रपद कृष्णाष्टमी को, जब वह रोहिणी नक्षत्र से युक्त होती है, जयन्ती कहा जाता है; to अमी अर्धरात्रि के पूर्व एवं उपरान्त एक कला तक बढ़ी रहती है तो वह अत्यन्त पवित्र काल माना जाता है और उसी समय भगवान् हरि का जन्म हुआ था; इस जयन्ती पर उपवास एवं हरि-पूजा से कर्ता के एक सौ पूर्व जीवनों के पाप कट जाते हैं; यह रोहिणी व्रत एक सौ एकादशीव्रतों से उत्तम है; राजमार्तण्ड (१२३११२५५); कृत्यरत्नाकर (२५८); वर्षक्रियाकौमुदी ( २९८-३०४ ) ।
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