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व्रत-सूची
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विभिन्न पात्रों में रख कर (यथा- - चार दाँतों का एक स्वर्ण हाथी स्वर्ण पात्र में स्वर्ण मेष स्वर्ण पात्र में ) स्वाहा को दिया जाता है; कर्ता अगणित वर्षों तक चन्द्रलोक में रह कर अन्त में एक सुन्दर राजा बनता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० २८८ - २९४ ) हेमाद्रि ( व्रत० १, ९३३ - ९३७, भविष्यपुराण से उद्धरण) । रूप का अर्थ है 'बनायी हुई वस्तुएँ या पशु से मिलती-जुलती आकृति' । चर्चित देवियाँ हैं दुर्गा की आकृतियाँ या माताओं की आकृतियाँ ।
रूप संक्रान्ति: संक्रान्ति दिन पर कर्ता तैल-स्नान करता है, स्वर्ण पात्र में थोड़ा सोना के साथ भी रखता है और किसी ब्राह्मण को दे देता है; उस दिन एकभक्त रहता है; संक्रान्तिव्रत है; सहस्र अश्वमेध का फल, सौन्दर्य, दीर्घायु, स्वास्थ्य, धन एवं स्वर्ण की प्राप्ति; हेमाद्रि ( व्रत० २, ७३४, स्कन्दपुराण से उद्धरण) । रूप सत्र : फाल्गुन पूर्णिमा के उपरान्त कृष्णाष्टमी पर जब मूल नक्षत्र हो तो व्रत का आरम्भ होता है; नक्षत्र, उसके स्वामी, वरुण, चन्द्र एवं विष्णु की पूजा; होम; गुरु सम्मान; दूसरे दिन उपवास; केशव पूजा ; केशव के पाद से शिर तक विभिन्न अंगों पर विभिन्न नक्षत्रों का न्यास; चैत्र शुक्ल के अन्त में सत्र - समाप्ति; अन्त में पुष्पों, धूप आदि से विष्णु पूजा ऋ० ( १।२२।२० ) के मन्त्र से होम; गुरु को दान ; ब्रह्म-भोज' ; स्वर्ग में वास तथा लौटने पर राजा बनना हेमाद्रि ( व्रत०२,६७१-६७५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); देखिए बृहत्संहिता ( १०४।६-१३) जहाँ यही व्रत चैत्र कृष्ण ८ को उपवास एवं नारायण तथा नक्षत्र की पूजा के साथ वर्णित है।
रूपाव । प्ति : (१) पंचमी पर विश्वेदेवों की पूजा से स्वर्ग -प्राप्ति; हेमाद्रि ( व्रत० १ ५७४-५७५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); दस विश्वेदेवों के लिए देखिए ऊपर 'राज्याप्तिदशमी' एवं इस ग्रन्थ का मूल खण्ड ४, पृ० ४५७, टिप्पणी १०१८; (२) यह एक मासव्रत है; फाल्गुन पूर्णिमा की प्रथमा से चैत्र पूर्णिमा तक शेषनाग के फण पर लेटे हुए केशव की प्रतिमा की पूजा; एकभक्त-विधि; पृथिवी पर शयन; तीन दिनों तक उपवास, उसके उपरान्त चैत्र पूर्णिमा पर पूजा ; चाँदी एवं वस्त्रों का एक जोड़ा दान ; इससे रूप ( सौन्दर्य ) की प्राप्ति हेमाद्रि ( व्रत० २, ७४४, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, ३।२०२।१-५ से उद्धरण) ।
रोगमुक्ति : स्कन्द, रुद्र एवं यम के सेवकों की पूजा से रोगमुक्ति मिलती है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ६२८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) ।
रोगविधि : जब रविवार को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र हो तो सूर्य - प्रतिमा-पूजन; कर्ता रोग मुक्त होता है और सूर्यलोक प्राप्त करता है; रात्रि में अर्क के पुष्पों से सूर्य पूजा, अर्क के पुष्पों एवं पायस को खाना ; रात्रि में पृथिवी पर सोना; सभी पापों से मुक्ति एवं सूर्यलोक - प्राप्ति; यह वारव्रत है; देवता सूर्य; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० २०-२१); हेमाद्रि ( व्रत० २,५२५-५२७, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) ; कृत्यरत्नाकर (६००-६०१) रोच : यह मासोपवास, ब्राह्मरोच, कालरोच ऐसे कतिपय व्रतों का नाम है; चैत्र शुक्ल १ पर प्रारम्भ; एक वर्ष तक; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।२२२-२२३) ने इसका विवरण दिया है; अध्याय २२४ में नारियों के चंचल स्वभाव का उल्लेख है, किन्तु अन्त में निष्कर्ष है : 'नारियाँ पापों एवं विकारों की जड़ हैं तथा धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति के साधन भी हैं; उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, प्रत्युक्त रत्नों के समान उनकी रक्षा की जानी चाहिए ( श्लोक, २५-२६) ।
रोटक : श्रावण शुक्ल के प्रथम सोमवार पर आरम्भ; साढ़े तीन मासों के लिए; कार्तिक की चतुर्दशी पर उपवास तथा बिल्व दलों के साथ पूजा; पाँच रोटक (गेहूँ की रोटी जो लोहे के तवा या मिट्टी के थाल में पकायी जाती है) बनाये जाते हैं, एक नैवेद्य के लिए, दो ब्राह्मण एवं दो कर्ता के लिए; शिव-पूजा; पाँच वर्षो
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