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धर्मशास्त्र का इतिहास समक्ष सौभाग्याष्टक नामक आठ द्रव्यों को रखना; सायंकाल सुन्दर घर के लिए स्तुति के साथ रुद्राणी को सम्बोधित करना; इस के उपरान्त कर्ता (स्त्री या पुरुष) किसी ब्राह्मण को उसकी पत्नी के साथ सम्मान देता है और सूप में नैवेद्य रख कर सधवा नारियों को समर्पित करता है; हेमाद्रि (वत० १, ४२६-४३०, भविष्योत्तरपुराण १८।१-३६ से उद्धरण); कालनिर्णय (१७६); तिथितत्त्व (३०-३१); यह व्रत विशेषतः नारियों के लिए है; (२) इसे यह नाम इसलिए मिला है कि रम्भा ने इसे सौभाग्य के लिए किया था; मार्गशीर्ष शुक्ल ३ पर; तिथि ; पार्वती ; एक वर्ष तक ; विभिन्न नामों से प्रतिमास देवी-पूजा (मार्गशीर्ष में पार्वती, पौष में गिरिजा आदि);
पन्न दान तथा विभिन्न पदार्थों का सेवन: हेमाद्रि (व्रत०१,५०४३०-४३५, भविष्योत्तरपूराण २४/१-३६ से उद्धरण); गरुडपुराण (१।१२०)। यदि तृतीया, द्वितीया एवं चतुर्थी से युक्त हो तो यह व्रत द्वितीया से युक्त तृतीया पर किया जाना चाहिए; कालनिणय (१७४); देखिए ऊपर तृतीयावत'।
रम्भात्रिरात्र-व्रत : ज्येष्ठ शक्ल १३ पर आरम्भ ; तिथि ; तीन दिनों तक; सर्वप्रथम स्नान के उपरान्त नारी को केले की जड़ में पर्याप्त जल ढारना चाहिए, उसे धागों से बाँधना चाहिए, उस केले की रजत-प्रतिमा तथा उसके फल सोने के होने चाहिए; फिर उसकी पूजा; १३ को नेक्त, १४ को अयाचित तथा १५ को उपवास; उस वृक्ष को वर्ष भर जल देना चाहिए; उमा-शिव एवं रुक्मिणी-कृष्ण की पूजा; तीनों दिन क्रम से १३ १४ एवं १५ आहुतियों से होम ; इस व्रत से पुत्रों की, सौन्दर्य की और सघवात्व आदि की प्राप्ति होती है ; हेमाद्रि (व्रत० २, २८३-२८८, स्कन्दपुराण से उद्धरण); वर्षक्रियाकौमुदी (११); 'रम्भा' का अर्थ कदली (केला) भी है, अतः यह माम है।
रविवारव्रत : रविवार को नक्त, आदित्य हृदय या महाश्वेता मन्त्र का जप ; कामना-पूर्ति ; वारव्रत ; सूर्य देवता; स्मृतिकौस्तुभ (५५६-५५७); वर्षकृत्यदीपक (४२३-५३६) ने विस्तृत उल्लेख किया है।
रविव्रत : (१) माघ में दिन में तीन बार सूर्य-पूजा; एक मास में ही ६ मासों का पुण्य ; हेमाद्रि (ब्रस० २, ७९६); (२) माघ में रविवार को; एक वर्ष तक सभी रविवारों को सूर्य-पूजा; कुछ निश्चित वस्तुओं पर क्रम से रहना या कुछ निश्चित वस्तुओं को न खाना; वर्षक्रियाकौमुदी (३७-३८)।
रविषष्ठी : षष्ठी को उपवास एवं सप्तमी को सूर्य-पूजा; धन-प्राप्ति एवं रोग-मुक्ति ; कालनिर्णय (१९०. लिंग पुराण से उद्धरण)
रसकल्पाणिनी : माघ शुक्ल ३ से आरम्भ; तिथि; दुर्गा; दुर्गा-प्रतिमा का मधु एवं चन्दन-लेप से स्नान, सर्वप्रथम प्रतिमा के दक्षिण पक्ष की तथा उसके उपरान्त वाम पक्ष की पूजा; उसके अंगों को विभिन्न नामों से युक्त कर पाँव से सिर तक की पूजा; १२ विभिन्न नामों (यथा---कुमुदा, माधवी, गौरी आदि) से, माघ से आरम्भ कर बारह मासों में देवी पूजा; माघ से कार्तिक तक प्रत्येक मास में कर्ता १२ वस्तुओं, यथा--लवण, गुड़, तवराज (दुग्ध ?), मधु, पानक (मसालेदार रस), जीरक, दूध, दही, घी माजिका (रसाला या शिखरिणी), धान्यक, शक्कर में से क्रम से किसी एक का त्याग करता है ; प्रत्येक मास के अन्त में किसी पात्र में इस मास में त्यागी हुई वस्तु को भर कर दान करना ; वर्ष के अन्त में अँगूठे के बराबर गौरी की स्वर्ण-प्रतिमा का दान'; पापों, चिन्ता एवं रोगों से मुक्ति; कृत्यकल्पतरु (६६-६९); हेमाद्रि (व्रत० २, ४६१-४६५, पद्मपुराण ५।२२।१०५-१३५ से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (४९९-५०३, मत्स्यपुराण ६३११-२९ से उद्धरण)। 'रसाला' दही से बनता था और आज के महाराष्ट्र में प्रयुक्त 'श्री खण्ड' से मिलता-जुलता है, कृत्यरत्नाकर (५०१)।
राखी-पूर्णिमा : श्रावण शुक्ल पूर्णिमा पर; देखिए गत अध्याय-७, रक्षाबन्धन'।
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