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व्रत-सूची की स्वर्ण प्रतिमा; जन-मार्ग से रथको ले जाकर दुर्गा मन्दिर तक पहुँचना, प्रकाश; नृत्य एवं संगीत से जागर; दूसरे दिन प्रातः प्रतिमा स्नान तथा दुर्गा के लिए रथ का समर्पण; एक सुन्दर पलंग, बैल एवं शीघ्र ही बच्चा देने वाली गाय का दान ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० २९४ - २९८ ) हेमाद्रि ( व्रत० १, ९४६ - ९४८, भविष्यपुराण से उद्धरण) ।
रथयात्रा : हेमाद्रि ( व्रत० २, ४२० - ४२४, देवीपुराण का उद्धरण) ने दुर्गा की रथयात्रा का वर्णन किया है; कृत्यरत्नाकर (२५९-२६४ ) ने वही वर्णन किसी अन्य स्रोत से दिया है; भविष्यपुराण (१।१८।३ - १७) ने ब्रह्मा की रथयात्रा का वर्णन किया है; कृत्यरत्नाकर (४३८-४३९) एवं पूजाप्रकाश (२९३-३०७ ) ने उद्धरण दिया है; पुरुषोत्तम की १२ एवं भुवनेश्वर की १४ रथयात्राओं का वर्णन गदाघरपद्धति (कालसार, १८३-१९० एवं १९०-१९४) में हुआ है; हेमाद्रि (व्रत०२, ४२४-४४०, भविष्पुराण का उद्धरण) ने सूर्य के रथयात्रोत्सव का विस्तृत उल्लेख किया है और कहा है ( पृ० ४२५) कि यह इन्द्रध्वजोत्सव के समान है तथा दोनों प्रति वर्ष विभिन्न देशों में शान्ति के लिए तथा लोगों के सुख एवं स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं तथा इनका आरम्भ मार्गशीर्ष शुक्ल से होना चाहिए | मथुरा में साम्बपुरदेव की रथयात्रा के लिए देखिए वाराहपुराण ( १७७।५५-५६ ) । भविष्योत्तरपुराण (१३४।४०-७१) में रथ-निर्माण, जुलूस व्यवस्था तथा रथ में प्रतिमा स्थापन आदि का विस्तृत उल्लेख है ।
रथसप्तमी : माघ शुक्ल ७ पर; तिथि ; सूर्य; षष्ठी की रात्रि को संकल्प एवं नियमों का पालन ; सप्तमी को उपवास; कर्ता को सोने या चाँदी का अश्व एवं सारथी से युक्त एक रथ बनवाना पड़ता है; सूर्य की स्तुति करनी होती है तथा मध्याह्न काल में रथ को वस्त्र से आच्छादित मण्डप में ले जाना होता है तथा कुंकुम, पुष्पों आदि से रथ की पूजा करनी पड़ती है; रथ में सूर्य की स्वर्ण प्रतिमा रखी जाती है; रथ एवं सारथी के साथ सूर्य-पूजा तथा मन्त्रोच्चारण और उसके साथ मनोकामना की अभिव्यक्ति; नृत्य एवं संगीत से जागर, कर्ता को पलकें नहीं बन्द करनी चाहिए अर्थात् वह उस रात्रि नहीं सोता ; दूसरे दिन प्रातः स्नान, दान और गुरु को रथ का दान हेमाद्रि ( व्रत० १, ६५२ - ६५८, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) । यहाँ कृष्ण ने युधिष्ठिर से काम्बोज के राजा यशोधर्मा की गाथा कही है कि किस प्रकार इस व्रत के संम्पादन से उसकी वृद्धावस्था में उत्पन्न पुत्र, जो सभी रोगों से विकल था, रोगमुक्त हो गया तथा चक्रवर्ती राजा हो गया । कालविबेक ( १०१ ) ; हेमाद्रि (काल ६२४) ने मत्स्यपुराण का उद्धरण देते हुए कहा है कि मन्वन्तर के आरम्भ में इस तिथि पर सूर्य को रथ प्राप्त हुआ, अतः यह तिथि रथसप्तमी के नाम से विख्यात है। इसे महासप्तमी भी कहा जाता है (हेमाद्रि, काल०, ६२४) । देखिए तिथितत्त्व (३९); पुरुषार्थ चिन्तामणि ( १०४ - १०५ ) ; व्रतराज ( २४९ - २५३ ) । देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द ११, पृ० ११२), राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामनगढ़ दान-पत्र, शके सम्वत् ६७५ (७५३-५४ ई० ) जहाँ 'माघमास रथसप्तमीम्' आया है। रथसप्तमी - माहात्म्य के लिए देखिये भविष्यपुराण (१।५० ) ।
रथसप्तमी : माघ शुक्ल ५, ६ एवं ७ पर क्रम से एकभक्त, नक्त एवं उपवास कुछ लोग ६ को उपवास एवं ७ को पारण की व्यवस्था देते हैं; इसे महासप्तमी भी कहा गया है (देखिए ऊपर), हेमाद्रि ( व्रत० १, ६५९-६६० ) एवं भविष्यपुराण ( १।५१११-१६ ) ने भी यही नाम दिया है।
रथोत्सव : आषाढ़ शुक्ल २ पर; जब पुष्य से संयुक्त हो तो कृष्ण, बलराम एवं सुभद्रा का रथोत्सव ; पुष्य नक्षत्र के न होने पर भी उत्सव किया जाना चाहिए; तिथितत्त्व (२९) ; निर्णयसिन्धु ( १०७ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( १३७) ।
रम्भातृतीय : (१) ज्येष्ठ शुक्ल ३ पर; पूर्वाभिमुख हो कर पाँच अग्नियों (यथा--गार्हपत्य, दाक्षिणाग्नि, सभ्य एवं आहवनीय तथा ऊपर से सूर्य ) के बीच में बैठना; ब्रह्मा एवं महाकाली, महालक्ष्मी, महामाया तथा सरस्वती के रूप में देवी की ओर मुख करना; ब्राह्मणों द्वारा सभी दिशाओं में होम; देवी-पूजा तथा देवी के
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