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धर्मशास्त्र का इतिहास युगान्त्य-श्राद्ध : तीन दिनों तक सम्पादन ; चारों युग क्रम से निम्नलिखित समयों पर अन्त को प्राप्त होते हैं ; कृत का अन्त तब होता है जब सूर्य सिंह राशि में रहता है, त्रेता का अन्त वृश्चिक-संक्रान्ति में, द्वापर का वृष-संक्रान्ति में तथा कलि का कुम्भ-संक्रान्ति में; हेमाद्रि (काल० ६५६); कृत्यरत्नाकर (५४२-५४३'); कृत्यकल्पतरु (नयत्कालिक काण्ड, ३७२)।
युगावतारवत : भाद्रपद कृष्ण १३ पर जब द्वापर-युग का आरम्भ हुआ; शरीर पर गोमूत्र, गोबर, दूर्वा एवं मिट्टी का प्रयोग और गहरे जल या तालाब में स्नान ; यह करने से गया-श्राद्ध का फल मिलता है; विष्णु-प्रतिमा का घी, दूध एवं शुद्ध जल से स्नान; विष्णुलोक की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० २, ५१८-५१९, भविष्यपुराण से उद्धरण)) कुछ लोगों का कथन है कि इस दिन त्रेतायुग का अभ्युदय हुआ था।
योगवत : विष्कम्भ व्यतीपात ऐसे योगों का उल्लेख आगे के प्रकरण 'काल' में किया जायगा; हेमाद्रि (व्रत० २, ७०७-७१७); स्मृतिकौस्तुभ (५६३-५६४); पुरुषार्थ-चिन्तामणि (५२)।
योगेश्वरवत या योगेश्वरद्वादशी : कार्तिक शुक्ल ११ को उपवास; चार जलपूर्ण घट, जिनके भीतर रत्न रखे गये हों, जिन पर चन्दन-लेप चिह्न लगे हों, जिनके चारों ओर श्वेत वस्त्र बँधा हो, जिनके ऊपर तिल एवं सोने से युक्त ताम्र-पात्र रखे गये हों, चार समुद्र समझे जाते हैं ; घट के ढक्कन के बीच में हरि (जो योगेश्वर कहे जाते हैं) की प्रतिमा रखी जाती है और पूजित होती है; जागर,; दूसरे दिन चारों घट चार ब्राह्मणों को दे दिये जाते हैं, स्वर्ण-प्रतिमा किसी अन्य पाँचवें ब्राह्मण को दी जाती है ; ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा ; इस व्रत को धरणीव्रत भी कहा जाता है; कर्ता पापमुक्त हो जाता है और स्वर्गलोक जाता है; कृत्यकल्पतरु (वत० ३३६-३३९); हेमाद्रि (व्रत० १, १०४१-१०४४, वराहपुराण ५०१४-२९ से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (४२७-४३०)।
रक्तसप्तमी : मार्गशीर्ष कृष्ण ७ पर; तिथिव्रत; लाल कमलों से सूर्य-पूजा या श्वेत पुष्पों एवं लाल चन्दन, वटक (बड़ा) एवं कृसर (चावल, मटर एवं मसालों से बना पक्वान्न) से सूर्य-प्रतिमा की पूजा; अन्त में लाल वस्त्रों के जोड़े का दान ; (विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१७०।१-३) ।
रक्षापञ्चमी : भाद्र पद कृष्ण ५ पर; काले रंगों से सर्पो का चित्रांकन एवं पूजा; सर्प प्रसन्न होते हैं और वंशजों को कोई डर नहीं होता; गदाधरपद्धति (७८-७९) ।
रक्षाबन्धन : श्रावण-पौर्णमासी पर; देखिए गत अध्याय-७। रङ्गपञ्चमी : फाल्गुन कृष्ण ५ पर; देखिए गत अध्याय-१२।
रटन्ती-चतुर्दशी : माघ कृष्ण १४ पर; तिथि; यम ; अरुणोदय के समय स्नान ; १४ नामों के साथ यम को तर्पण (कृत्यतत्त्व ४५० में यम के ये नाम उल्लिखित हैं); वर्षक्रियाकौमुदी (४९७); कृत्यतत्त्व (४५७); गदाधरपद्धति (कालसार १५७-१५८); देखिए ऊपर प्रेत-चतुर्दशी।
रत्नषष्ठी : मृच्छकटिक (अंक ३) एवं चारुदत्त (अंक ३, पृ० ६३, भासलिखित) में उल्लिखित वहाँ 'ननु षष्ठीम् उपवसामि' नामक शब्द आये हैं; किन्तु यह कहना कठिन है कि यह रत्नषष्ठी है या कोई और।
रत्नानि : (रत्न या बहुमूल्य वस्तुएँ) देखिए ऊपर 'पंचरत्न' जहाँ पाँच रत्नों के नाम आये हैं (सोना, हीरा, नीलम, पद्मराग एवं मोती); व्रतराज (१५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण का उद्धरण) ने नौ रत्नों के नाम दिये हैं, यथा-मोती, सोना, वैदूर्य, पद्मराग, पुष्पराग, गोमेद (हिमालय से प्राप्त), नीलम, गारुत्मत एवं मूंगा।
रथनवमी : आश्विन शुक्ल ९ (कृत्यकल्पतरु के अनुसार)या कृष्ण ९ (हेमाद्रि के अनुसार); तिथि; दुर्गा; उस दिन उपवास, दुर्गा-पूजा; दर्पणों, चौरियों, वस्त्रों, छत्र, मालाओं आदि से सुसज्जित रथ पर या भैंसे पर बैठी दुर्गा
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