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धर्मशास्त्र का इतिहास से की जाती है; सभी पापों से विशेषतः त्रुटिपूर्ण तौल-बटखरों एवं मापकों से व्यापार करने वालों के पापों से मुक्ति मिलती है; हेमाद्रि (व्रत० १, ४१६-४१७, भविष्योत्तरपुराण १७।१-१४ से उद्धरण)।
. मौनव्रत : (१) पूर्णिमान्त गणना से श्रावण के अन्त के उपरान्त भाद्रपद १ से १६ दिनों तक कर्ता को दूर्वा की शाखाओं की १६ गाँठे बना कर दाहिने हाथ में (स्त्रियों को बायें हाथ में) रखना चाहिए; १६ वें दिन पानी लाने, गेहूँ को पीसने तथा उससे नैवेद्य बनाने तथा भोजन करते समय मौन रखना चाहिए; शिव-प्रतिमा या लिंग को जल, दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर से स्नान करा कर पूजा करना तथा 'शिव प्रसन्न हों' ऐसा कहना; इससे सन्तति-प्राति एवं कामना-पूर्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत० २, ४८२-४९२); निर्णयामृत (२६-२७); (२) ८, ६ या तीन मासों तक या एक मास, अर्घ मास या १२, ६ या ३ दिनों तक या एक दिन तक मौन रहना; मौनव्रत से सर्वार्थ सिद्धि होती है ('मौन सर्वार्थसाधकम्', पृ० ८८०); कर्ता को भोजन करते समय 'हुँ' भी नहीं कहना चाहिए; मन, वचन एवं कर्म से हिंसा-त्याग; व्रत-समाप्ति पर चन्दन का लिंग-निर्माण तथा गन्ध एवं अन्य उपचारों से उसकी पूजा, मन्दिर की विभिन्न दिशाओं में सोने एवं पीतल के घण्टों का अर्पण; शवों एवं ब्राह्मणों को भोज; सिर पर पीतल के पात्र में लिंग रख कर जन-मार्ग से मौन रूप से मन्दिर को जाना तथा मन्दिरप्रतिमा के दाहिने पक्ष में लिंग-स्थापन और उसकी बार-बार पूजा; कर्ता शिव-लोक जाता है; हेमाद्रि (व्रत० २, ८७९-८८३, शिवधर्म से उद्धरण)।
यक्षकर्दम : (यक्षों का प्रिय अंजन) पाँच सुगन्धित पदार्थों से निर्मित ; देखिए गत अध्याय-२; हेमाद्रि (व्रत० १, १४३-४४); व्रतराज (पृ० १६) ।
यज्ञसप्तमी : शुक्ल ७ पर, जब ग्रहण हो, विशेषतः जब संक्रान्ति हो; कर्ता एक बार हविष्य भोजन करता है, वरुण को प्रणाम करता है, पृथिवी पर रखी दर्भ घास पर बैठता है; दूसरे दिन प्रातःकाल आरम्भ में एवं अन्त में वरुण की पूजा करता है। एक विस्तृत विधि व्यवस्थित है ; माघ सप्तमी पर वरुण को, फाल्गुन ७ पर सूर्य को, चैत्र ७ पर अंशुमाली (सूर्य का एक नाम) को पूजित किया जाता है और इसी पर पौष तक कृत्य चला जाता है; वर्ष के अन्त में एक स्वर्ण रथ बनाया जाता है, जिसमें सातघोड़े जुते होते हैं, जिसके मध्य में सूर्य की एक स्वर्ण-प्रतिमा रहती है, जिसके चतुर्दिक सूर्य के १२ नामों के प्रतिनिधियों के रूप में बारह ब्राह्मण बने रहते हैं, बारह मासों में १२ ब्राह्मण पूजित होते हैं:; रथ एवं एक गाय आचार्य को दान रूप में अपित ; दरिद्र व्यक्ति ताम्र का रथ बना सकता है; कर्ता लम्बे क्षेत्रों का राजा हो जाता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १०७-११२); हेमाद्रि (व्रत० १, ७५७-७६०, भविष्यपुराण, ११५०।१-४२ से उद्धरण); ने लिखा है कि यहाँ वरुण का अर्थ है सूर्य।
यमचतुर्थी : शनिवार एवं भरणी नक्षत्र में पड़ने वाली चतुर्थी पर यम-पूजा; सात जन्मों तक पापों से मुक्ति; हेमाद्रि (व्रत० १, ५२३-५२४); पुरुषार्थ-चिन्तामणि (९५, कूर्मपुराण से उद्धरण); यम भरणीनक्षत्र का स्वामी है।
यमतर्पण : तिलयुक्त जल की अंजलियों से यम के तीन नामों (यम, धर्मराज, अन्तक) को तीन बार तर्पण करना; एक वर्ष में किये गये पाप तुरत समाप्त हो जाते हैं।
यमदीपदान : कार्तिक कृष्ण १३ पर; रात्रि हो जाने पर घर के बाहर दीप-दान ; इससे आकस्मिक मृत्यु से रक्षा होती है; पुरुषार्थ-चिन्तामणि (२३१); स्मृतिकौस्तुभ (३६८)।
यमद्वितीया : देखिए गत अध्याय-१०। यमद्वितीयायात्रा : भुवनेश्वर की १४ यात्राओं में एक ; गदाधरपद्धति (कालसार, १९३) ।
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