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व्रत-सूची
१८३ उसे दूध, घी एवं फल का रस देना चाहिए; ब्राह्मणों की सम्मति से ऐसा करने से व्रत खण्डित नहीं होता; हेमाद्रि (व्रत० २, ७७६-७८३, विष्णुरहस्य से उद्धरण).
मासरक्षपौर्णमसीव्रत : कार्तिक शुक्ल १५ पर आरम्भ ; नक्त-विधि से भोजन ; नमक से बने वृत्त, तथा चन्दन-लेप से निमित चन्द्र की दस नक्षत्रों के साथ पूजा यथा-कार्तिक में कृत्रिका एवं रोहिणी के साथ, मार्गशीर्ष में मृगशिरा एवं आर्द्रा के साथ . . .और यह क्रम आश्विन तक चला जाता है; सधवा नारियों का गुड़, बढ़िया भोजन, घी, दूध आदि से सम्मान ; स्वयं हविष्य भोजन करना; अन्त में सोने के साथ रंगीन वस्त्र का दान। विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१९२।१-१५); नीलमतपुराण (पृ० ४७)।
त्रिसप्तमी : मार्गशीर्ष शुक्ल ७ को यह नाम मिला है; तिथि व्रत ; देवता, मित्र (सूर्य); षष्ठी को मित्र-प्रतिमा को उसी विधि से स्नान कराया जाता है जैसा कि कार्तिक शुक्ल ११ को विष्णु-प्रतिमा को; सप्तमी को उपवास (फल खाये जा सकते हैं); रात्रि में जागर; विभिन्न पुष्पों, आटे के पक्वान्नों से सूर्य-पूजा; ब्राह्मणों, दरिद्रों एवं असहायों को भोजन; अष्टमी को नर्तकों तथा अभिनेताओं के बीच धन का वितरण; नीलमतपुराण (पृ० ४६-४७, श्लोक ५६४-५६९); कृत्यरत्नाकर (४६०-४६१); कृत्यकल्पतरु (नयत्कालिक काण्ड (४३२); वर्षक्रियाकौमुदी (४८३); पुरुषार्थ-चिन्तामणि (१०४)।
मुक्ताभरणवत : भाद्र शुक्ल सप्तमी पर; तिथिव्रत; देवता, शिव एवं उमा; शिव-प्रतिमा के समक्ष एक डोरक (धागों से बना गण्डा) रखना; आवाहन से आरम्भ कर १६ उपचारों के साथ शिव-पूजा; मोती एवं अन्य बहुमूल्य पत्थरों से युक्त सोने को आसन ; उपचारों के उपरान्त मेखला में गण्डा बाँधना; ११०० मण्डकों एव वेष्टकों का दान'; दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति ; निर्णयसिन्ध (१३४), व्रतरत्नाकर (२४१-२४७) ।
मुक्तिद्वार-सप्तमी : जब सप्तमी को हस्त नक्षत्र हो या पुण्य नक्षत्र हो तो यह व्रत किया जाना चाहिए; कर्ता को 'अर्क को प्रणाम' के साथ अर्क की टहनी से अपने दाँत स्वच्छ करने चाहिए होम ;गोबर से लीपे गये आँगन में लाल चन्दन के लेप से एक षोडश-दल कमल बनाना चाहिए, जिसके प्रत्येक दल पर पूर्व से आरम्भ कर कतिपय देवों को प्रतिष्ठापित करना चाहिए; तब आवाहन से आरम्भ कर अन्य उपचार सम्पादित करने चाहिए। उस दिन उपवास ; एक वर्ष तक ६ रसों (मधुर, लवण, तिक्त, कषाय, कटु, अम्ल) में किसी एक को दो मास तक खाना; १३ वें मास में पारण तथा एक कपिला गाय का दान; मोक्ष-प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० २, ७८०-७८६)।
एक वर्ष तक ताम्बल (मखवास) का त्याग; वर्ष के अन्त में एक गाय का दान; कर्ता यक्षों का अधिपति हो जाता है; हेमाद्रि (व्रत० २, ८६५, पद्मपुराण से उद्धरण)।
मूलगौरीव्रत : चैत्र शुक्ल ३ पर; तिल एवं जल से स्नान ; स्वर्ण-फलों के साथ एवं पाँव से सिर तक शिव एवं गौरी की पूजा; १२ मासों में विभिन्न पुष्पों का उपयोग ; इसी प्रकार विभिन्न पदार्थों को खाना या पीना; गौरी के विभिन्न नामों की पूजा; कर्ता को एक फल छोड़ देना चाहिए; अन्त में एक पलंग, सोने के बैल एवं गाय का दान; शिव ने गौरी से चैत्र शुक्ल तृतीया पर विवाह किया था; अग्निपुराण (१७८११-२०) ।
मृगशीर्षवत : श्रावण कृष्ण १ पर शिव ने तीन फलकों के एक बाण से हरिण रूप धारण किये हुए यज्ञ के तीन मुखों को भेदा था; कर्ता को मिट्टी से मृगशीर्ष की प्रतिमा बना कर तरकारियों एवं सरसों से युक्त आटे के विभिन्न नैवद्य से पूजा करनी चाहिए; हेमाद्रि (व्रत० १, ३५८-३५९); स्मृतिकौस्तुभ (१४६)।
मेघपालीतृतीया : आश्विन शुक्ल ३ को नर-नारियों का मेघपाली नामक लता से पूजा करनी चाहिए; यह लता बाटिकाओं, पहाड़ियों एवं मार्गों पर उगती है; इसकी पूजा विभिन्न प्रकार के फलों एवं सात धान्यों के अंकुरों
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