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धर्मशास्त्र का इतिहास महाभाद्री : देखिए कार्तिक, जहाँ 'महा' के विषय का नियम दिया हुआ है।
महामाधी : जब सूर्य श्रवण-नक्षत्र में तथा चन्द्र मघा में हो तो उसे महामाघी कहा जाता है; राजमार्तण्ड (१३६६) में आया है कि सूर्योदय के समय जल बोल उठता है--'मैं किस पापी को,आसवपायी को या ब्रह्म-हत्यारे को, शुद्ध करूँ?'; वर्षक्रियाकौमुदी (४९०, भविष्यपुराण से उद्धरण); स्मृतिकौस्तुभ (४३९, पद्मपुराण); पुरुषार्थ-चिन्तामणि (३१३-३१४) में आया है कि जब शनि मेष में, चन्द्र एवं बृहस्पति सिंह में तथा सूर्य श्रवण नक्षत्र में होता है तो महामाधी कहलाती है। अन्य मतों के लिए देखिए निर्णयसिन्धु (२२१)। प्रयाग, अन्य पवित्र नदियों एवं तालाबों में प्रातःकाल महास्नान से पाप कट जाते हैं। तमिल देश में 'मख' एक वार्षिक मन्दिरोत्सव है और महामख १२ वर्षों में एक बार होता है जब कि महामघ नामक तालाब में (कुम्भकोणम नामक स्थान में) स्नान के लिए एक बृहद् मेला लगता है; यह मेला प्रयाग के कुम्भ मेला के समान है। यह
त्सव 'ममंगम्' के नाम से विख्यात है और मघा नक्षत्र में पड़ने वाली पूर्णिमा में तथा जब बृहस्पति मघा में या सिंह राशि में पड़ता है तो यह मनाया जाता है। दक्षिणी पंचांगों के अनुसार यह सन् १९५५ ई० की २५ फरवरी को मनाया गया था। ऐसा प्रकाशित हुआ था कि उस समय दो बजे रात्रि से प्रारम्भ होकर ८ से १० घण्टे तक लगभग एक लाख लोगों ने कुम्मकोणम् के महामखम् तालाब में स्नान किया था। तालाब से कीचड़युक्त जल बाहर निकाला गया था और कावेरी से नया जल भरा गया था।
यह आश्चर्य है कि मध्यकालीन निबन्धों में महामखम या कुम्भ मेला का कोई उल्लेख नहीं है। महान् हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में संगम के पश्चिम भाग में एक बड़ा मेला लगाते थे और अपने कोष का धन बाँट देते थे।
महामार्गशीर्षा : देखिए ऊपर कार्तिक के अन्तर्गत 'महा' विशेषण के विषय में।
महाराजवत : जब १४ वीं तिथि (शुक्ल या कृष्ण) आर्द्रा नक्षत्र में हो या यह पूर्वाभाद्रपदा एवं उत्तरा भाद्रपदा से युक्त हो तो वह शिव को आनन्द देती है; १३ वीं तिथि को संकल्प ; १४ वीं तिथि को एक के उपरान्त दूसरे से, यथा-तिल, गोमूत्र, गोबर, मिट्टी, पंचगव्य तथा अन्त में शुद्ध जल से स्नान; इसके उपरान्त शिव संकल्प मन्त्र यज्जाग्रतो दूरम्' (शिवसंकल्पोपनिषद्,८) का १००० बार जप तीन वर्षों के लिए तथा 'ओं' नमः शिवाय' शूद्रों के लिए पंचामृत,पंचगव्य, ईख के रस से शिव एवं उमा की प्रतिमाओं को स्नान कराना तथा कस्तूरी, कुंकुम आदि लगाना; दीप मालिका; शिव संकल्प या 'यंम्बकं यजामहे' मन्त्र के साथ सहस्त्रों बिल्वदलों से होम: मन्त्रों के साथ अर्घ्य : रात्रिभर जागर (जागरण); ५ या २ या १ गाय का दान; पंचगव्य पान के उपरान्त मौन रूप से भोजन; सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं और परम पद की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० २, १०३९-११४७, स्कन्दपुराण से उद्धरण)।
महालक्ष्मीपूजा : इस व्रत के विषय में विभिन्न मत हैं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० १९) एवं अहल्याकामधेनु (५३५ बी-५३९ बी) के मत से-भाद्रपद शुक्ल ८ को आरम्भ तथा आषाढ़ कृष्ण ८ को समाप्त (पूर्णिमान्त गणना), यह १६ दिनों तक चलती है,प्रति दिन महालक्ष्मी-पूजा तथा महालक्ष्मी के विषय की गाथाओं का श्रवण। निर्णयसिन्धु (पृ० १५३-१५४) में भी यही अवधि दी हुई है, किन्तु पहली बार किये जाने पर चार दोषों से बचना होता है, यथा--अवमदिन न हो, तिथि त्रयःस्पृक् न हो, नवमी से युक्त न हो, सूर्य हस्त-नक्षत्र के भाग में न हो। महाराष्ट्र में यह पूजा विवाहित नारियों द्वारा आषाढ़ शुक्ल ९ को मध्याह्न में की जाती है और रात्रि में सभी विवाहित नारियाँ एक-साथ पूजा करती हैं, खाली घड़ों को हाथ में रखती हैं, उनमें श्वास लेती हैं और
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