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धर्मशास्त्र का इतिहास
द्वादशी भी कहा जाता है, क्योंकि गोपी एवं मल्ल लोग अरण्य (वन) में एक-दूसरे को खाद्य-पदार्थ देते हैं; स्वास्थ्य,
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शक्ति (बल), धन एवं विष्णुलोक की प्राप्ति हेमाद्रि ( व्रत १, १९९५-१११७ ) । पर; मल्लारि को पत्नी महालसा ( मदालसा का अपभ्रंश) है; महाराष्ट्र में भण्डारा ) ; पूजा प्रत्येक रविवार या शनिवार या विधि ब्रह्माण्ड, मल्लारि-माहात्म्य ( क्षेत्रखण्ड); अहल्याकामधेन
मल्लारिमहोत्सव : मार्गशीर्ष ६ मल्लारिपूजा में मुख्य तत्त्व है हल्दी का चूर्ण षष्ठी पर की जाती है; इस पूजा की (४२१) ।
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महत्तमव्रत : भाद्रपद शुक्ल १ पर; तिथि स्वर्ण या रजत की शिव मूर्ति पूजा शिव की तीन आँखें, पाँच मुख; मूर्ति को एक घड़े के ऊपर रख कर पंचामृत से स्नान, पुष्प आदि से पूजा; कर्ता मौन व्रत रखता है; १६ फलों का अर्पण; अन्त में गोदान; दीर्घायु, राज्य आदि की प्राप्ति; स्मृति कौस्तुभ ( पृ० निर्णयामृत ने भ्रामक ढंग से इसे मौनव्रत कहा है ।
२०१ ) ;
महाकार्तिकी : देखिये कार्तिक के अन्तर्गत; देखिये इण्डियन रेण्टीक्वेरी (जिल्द ३, ३०५ एवं जिल्द ६, ३६३, चालुक्यराज मंगलेश्वर के राज्यकाल शके ५०० -५७८ ई० सन् का शिलालेख ), कृत्यकल्पतरु ( व्रत० १७२) एवं हेमाद्रि ( व्रत० १, ७३० ) में वर्णित महांग धूप के निर्माण का उल्लेख इस शिलालेख में है; यह धूप कामदा सप्तमी में भी प्रयुक्त होती है; महाकार्तिकपौर्णमासी पर ब्राह्मणों को महादान ।
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महाचतुर्थी : भाद्रशुक्ल ४ से जब कि वह रविवार या मंगलवार को पड़े इस दिन गणेश-पूजा से कामनाएँ पूर्ण होती हैं; स्मृतिकौस्तुभ ( २१० ) ।
महाचैत्री : चन्द्र एवं चित्रा नक्षत्र से युक्त बृहस्पति के साथ चैत्र पूर्णिमा पर पुरुषार्थचिन्तामणि ( ३१३ ) ; गदाधरपद्धति ( कालसार ५९९ ) ।
महाजय सप्तमी : जब शुक्ल ७ पर सूर्य किसी राशि में प्रविष्ट होता है तो उसे महाजयासप्तमी कहा जाता है; स्नान, जप, होम, देवों एवं पितरों की पूजा से कोटिगुना फल मिलता है; उस दिन सूर्य-प्रतिमा को घृत या दूध से स्नान कराने से व्यक्ति को सूर्यलोक की प्राप्ति होती है; उस दिन उपवास से स्वर्ग-प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १३५ - १३६ हेमाद्रि, व्रत १, ६६९ ) । कृत्यकल्पतरु इस व्रत के स्रोत के विषय में मौन है, वह अधिकतर व्रत-स्रोत के विषय में कोई प्रकाश नहीं डालता। हेमाद्रि ( काल० ४१४ ) एवं तिथितत्त्व ( १४५ ) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत किया है।
महाज्यैष्ठी : ज्येष्ठ पूर्णिमा को, जब उस काल में ज्येष्ठा नक्षत्र हो, चन्द्र एवं बृहस्पति का योग हो, सूर्य रोहिणी में हो तो, इस नाम से पुकारा जाता है; दान, जप आदि से पुण्य प्राप्ति पुरुषार्थचिन्तामणि ( ३१३) एवं गदाधरपद्धति (कालसार, ६०० ) ।
महातपोव्रतानि : व्रत-सम्बन्धी कतिपय ग्रन्थों में इस शीर्षक से कतिपय छोटे-मोटे कृत्यों का उल्लेख है । उन्हें इस सूची में पृथक् ढंग से नहीं रखा गया है । कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४५३- ४६९ ) ; हेमाद्रि (व्रत० २,९१७९३१); कृत्यरत्नाकर (५४०), वर्षक्रियाकौमुदी ( ५३३ ) ।
महातृतीया : माघ या चैत्र की तृतीया पर; देवता गौरी; गुड़धेनु का अर्पण, किन्तु स्वयं गुड़ न खाना ; इससे प्रसन्नता एवं गौरी-लोक की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ४८४, पद्मपुराण से उद्धरण) ; गुडधेनु के विषय में देखिये मत्स्यपुराण (८२ ) ।
महाद्वादशी : श्रवण नक्षत्र से युक्त भाद्र शुक्ल की द्वादशी को यह संज्ञा मिली है; उपवास; विष्णु-पूजा ; कृत्यरत्नाकर (२८६-२८७ ) । विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( १।१६१।१-८) में आया है कि यदि भाद्रपद द्वादशी बुधवार
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