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धर्मशास्त्र का इतिहास
'यद्यपि तुम कुजन्मा हो तथापि विज्ञ लोग तुम्हें मंगल कहते हैं' नामक मन्त्र के साथ किसी ब्राह्मण गृहस्थ को दान । 'कुजन्मा' में श्लेष है : एक अर्थ है ( १ ) किसी अशुभ दिन में उत्पन्न तथा दूसरा है ( २ ) पृथिवी से उत्पन्न। मंगल का रंग लाल है, अतः ताम्र, लाल एवं कुंकुम का प्रयोग होता है; हेमाद्रि ( व्रत० २,५६७, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) ; (२) मंगलवार को मंगल-पूजा ; प्रातः काल मंगल के नामों का जप ( कुल २१ नाम हैं, यथा - मंगल, कुज, लोहित, यम, सामवेदियों के प्रेमी ) ; एक त्रिभुजाकार चित्र, बीच में एक छेद; कुंकुम एवं लाल चन्दन से प्रत्येक कोण पर तीन नाम (आर, वक्र एवं कुज) लिखे जाते हैं; मंगल का जन्म उज्जयिनी में भारद्वाज कुल में हुआ था और वह भेंड़ा (मेष) की सवारी करता है; यदि कोई जीवन भर इस व्रत को करे तो वह संमृद्धिशाली, पुत्रपौत्रवान् हो जाता है और ग्रहों के लोक में पहुँच जाता है; हेमाद्रि ( व्रत०२, ५६८-५७४, पद्मपुराण से उद्धरण), वर्षकृत्यदीपक (४४३-४५१ ) में भौमव्रत तथा व्रतपूजा का विस्तृत उल्लेख है ।
भातृद्वितीया: कार्तिक शुक्ल २, पर; इसे यमद्वितीया भी कहते हैं क्योंकि प्राचीन काल में यमुना ने अपने भाई यम को इस दिन भोजन दिया था; कुछ ग्रन्थ, यथा --- कृत्यतत्त्व ( ४५३), व्रतार्क, व्रतराज ( ९८-१०१ ) दोनों को अर्थात्, यम पूजा एवं बहिन के घर में भोजन करना, एक में मिला देते हैं ।
मंगल : आथर्वणपरिशिष्ट (हेमाद्रि, व्रत० २, ६२६ में उद्धृत) के अनुसार ब्राह्मण, गाय अग्नि, भूमि, सरसों, घी, शमी, चावल एवं जौ आठ शुभ वस्तुएं हैं । द्रोणपर्व ( १२७।१४ ) ने आठ मंगलों का उल्लेख किया है; द्रोणपर्व (८२।२०-२२) में लम्बी सूची है । वामनपुराण ( १४१३६-३७ ) ने शुभ वस्तुओं के रूप में कतिपय वस्तुओं का उल्लेख किया है, जिन्हें घर से बाहर जाते समय छूना चाहिये, यथा- दूर्वा, घृत, दही, जलपूर्ण घट, बछड़े सहित गाय बैल, सोना, मिट्टी, गोबर, स्वस्तिक, अक्षत अन्न; तेल, मधु, ब्राह्मण कुमारियाँ, श्वेत पुष्प, शमी, अग्नि, सूर्य-चत्र, चन्दन, एवं अश्वत्थ वृक्ष (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १६८ द्वारा उद्धृत ) । देखिये अन्य मंगलमय वस्तुओं के लिये पराशर (१२ | ४७), विष्णुधर्मोत्तरपुराण (२।१६३।१८ ) ।
मंगल- चण्डिकापूजा : वर्षक्रियाकौमुदी (५५२-५५८ ) में विस्तृत विधि दी हुई है; इसे ललितकान्ता भी कहा गया है; उसकी पूजा के लिये मन्त्र (ललित -गायत्री) यह है : 'नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकायै तु धीमहि । तन्नो ललितकान्तेति ततः पश्चात्प्रचोदयात् ॥'; अष्टमी एवं नवमी पर पूजा; उसकी पूजा किसी वस्त्र खण्ड पर या प्रतिमा के रूप में या घट पर की जा सकती है; मंगल को पूजा करने पर कामनाओं की पूर्ति होती है; तिथितत्त्व ( ४१ ) भी देखिये ।
मंगलचण्डी : मंगलवार को; चण्डी की पूजा, जो सर्वप्रथम शिव द्वारा सम्पादित हुई थी, तब मंगल द्वारा, मंगल राजा द्वारा, मंगल को नारियों द्वारा तथा अच्छे भाग्य के इच्छुक सभी मनुष्यों द्वारा; ब्रह्मववर्त ( प्रकृति खण्ड, ४४।१-४१)।
मंगलव्रत : आश्विन की कृष्ण अष्टमी पर; माघ, चैत्र या श्रावण में भी ; यह आगे की शुक्लाष्टमी तक की जाती है; अष्टमी को एकभक्त; कुमारियों तथा देवी भक्तों को भोजन; नवमी को नक्त, दशमी को अयाचित तथा एकादशी को उपवास; बार-बार करना; प्रतिदिन दान, होम, जप, पूजा एवं कुमारियों को भोजन पशु-बलि नृत्य, नाटक एवं संगीत से जागरण; देवी के १८ नामों का जप ; हेमाद्रि ( व्रत० २, ३३२-३३५, देवीपुराण से उद्धरण) ।
मंगलागौरीव्रत : श्रावण के सभी मंगलवारों पर; विवाहित नारियों द्वारा विवाह के उपरान्त पाँच वर्षों तक, महाराष्ट्र में प्रचलित ; पूजा करने वाली नारियां मध्याह्न में मूक होकर भोजन करती हैं । १६ प्रकार के पुष्प १६ सुवासिनियों की आवश्यकता; १६ दीपों के साथ देवी का नीराजन; देवता, गौरी; विघवात्व से छुटकारा पाने
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