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धर्मशास्त्र का इतिहास लगाना, विष्णु-पूजा (नमो नारायण); विभिन्न नामों (कृष्ण, दामोदर आदि) से विष्णु के विभिन्न अंगों की पूजा; गरुड़-पूजा; शिव, गणेश की पूजा; एकादशी को पूर्ण उपवास ; १२ को नदी में स्नान ; घर के समक्ष मण्डप निर्माण तोरण से एक जलपूर्ण घट लटकाना तथा उसकी पेंदी में एक छेद करके रात्रि-भर अपने हाथ पर उसे टपकाना; ऋग्वेद में पारंगत चार पुरोहितों द्वारा होम; चार यजुर्वेदज्ञों द्वारा रुद्र-जप, ४ सामवेदियों द्वारा साम-गान ; इन १२ पुरोहितों को अंगूठियों, वस्त्रों आदि से सम्मान देना,; आगे की तिथि (त्रयोदशी) पर १३ गायों का दान; पुरोहितों के प्रस्थान के उपरान्त केशव प्रसन्न हों, विष्णु शिव के तथा शिव विष्णु के हृदय हैं' का कथन ; इतिहास एवं पुराण सुनना ; देखिये गरुडपुराण (१११२७); (२) माघ शुक्ल १२ पर; यह विदर्भ के राजा एवं दमयन्ती के पिता भीम द्वारा पुलस्त्य को बताया गया था; (१) के समान ही व्यवस्थाएँ; कर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है। यह व्रत वाजपेय, अतिरात्र आदि से श्रेष्ठ है; हेमाद्रि (व्रत० १, १०४९-१०५६, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
भीमव्रत : कार्तिक शक्ल ११ से पांच दिन ; कर्ता पज्वामत, पञ्चगव्य एवं चन्दन-लेप से यक्त जल से तीन बार स्नान करता है: जौ, चावल एवं तिल से पितरों का तर्पण; ‘ओं नमो वासदेवाय' को १०८ बार कह कर पूजा तथा ओं नमो विष्णवे' मन्त्र के साथ तिल, जौ एवं चावल में घी लगा कर होम; यह विधि पाँच दिनों तक; पांच दिनों तक क्रम से पाँवों, घुटनों, नाभि, कन्धों एवं शिर की कमलों, बिल्व-दलों, भंगारक (चौथे दिन), बाण, बिल्क एवं जया, मालती से पूजा; ११ से १४ तक क्रम से गोबर, गोमूत्र, दूध एवं दही को (देह को पवित्र करने के लिए) खाना ; पाँचवें दिन ब्रह्म-भोज एवं दान ; कर्ता के सभी पाप कट जाते हैं ; हेमाद्रि (व्रत० २, ३३६-३४१, नरसिंह एवं भविष्यपुराणों से उद्धरण) में आया है कि इसे भीष्म ने कृष्ण से सीखा, जब कि कृष्ण घोषित करते हैं कि उन्होंने इसे भीष्म से बाण-शैय्या पर सुना ; भविष्योत्तरपुराण ने कर्ता को शाक एवं यति-भोज्यपदार्थ खाने की अनुमति दे दी है; कालविवेक (३२४, यहां ऐसा कहा गया है कि हेमाद्रि (व्रत० २, ३४ का अन्तिम श्लोक भविष्योत्तरपुराण का है)। पश्चात्कालीन मध्यकाल के ग्रन्थ, यथा-निर्णयसिन्धु (२०४), समयमयूख (१५८-१५९), स्मृतिकौस्तुभ (३८६) ऐसा कहते हैं कि सभी वर्गों के लोगों द्वारा भीष्म को अर्घ्य देना चाहिये, तर्पण मन्त्र द्रष्टव्य है, यथा-'वैयाघ्र पद्मगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च। गंगापुत्राय भीष्माय प्रदास्येह तिलोदकम् ।। अपुत्राय ददाम्येतत् सलिलं भीष्मवर्मणे।' ये भोजकृत भुजबल निबन्ध (पृ० ३६४, श्लोक १७१४-१५) में उद्धृत हैं; राजमार्तण्ड (खण्ड ३६, पृ० ३३२); हेमाद्रि (काल० ६२८)। इसे करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। अग्निपुराण (२०५:१.९); गरुडपुराण (१।१२३॥३-११); पद्मपुराण (६।१२५।२९-८२) में इस व्रत का बृहद् उल्लेख है।
भीष्माष्टमी : माघ शुक्ल ८ पर; भीष्म को, जो कुंवारे मृत हुए थे, प्रतिवर्ष जल एवं श्राद्ध ; जो ऐसा करे, एक वर्ष में किये गये पाप से मुक्त हो जाता है और सन्तति प्राप्त करता है ; हेमाद्रि (काल, ६२८-६२९); वर्षक्रियाकौमुदी (५०३), तिथितत्त्व (५८); निर्णयसिन्धु (२२१), समयमयूख (६१)। जिसका पिता जीवित हो वह भी भीष्म को जल दे सकता है (समयमयूख ६१) । यह तिथि सम्भवतः अनुशासनपर्व (१६७।२८) पर आधारित है (माघोयं समनुप्राप्तो...त्रिभागशेषः पक्षोयं शुक्लो भवितुमर्हति)। प्रो० पी० सी० सेनगुप्त की व्याख्या का में आदरपूर्वक खण्डन करता हूँ। उन्होंने 'समनुप्राप्त' को समनुप्राविष्ट' माना है, जो त्रुटिपूर्ण एवं तर्कहीन है, यह मानन कि भीष्म की मृत्यु माघ कृष्ण ८ को हुई न कि माघ शुक्ल ८ को सम्भव नहीं है। देखिये जे० ए० एस० बी० (जिल्द २०, संख्या १, पत्र, पृ० ३९-४१, १९५४ ई०)। भुजबलनिबन्ध (पृ० ३६४) में दो श्लोक हैं, जो तिथितत्त्व, निर्णय सिन्धु एवं अन्य ग्रन्थों में उद्धृत है : 'शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम्। संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ वैयाघ्रपद्यगोत्राय सांकृमिप्रवराय च । अपूत्राय ददात्यम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे॥ ब्राह्मणों को भी उस उत्तम व्यक्तित्व वाले योद्धा को तर्पण देने की अनुमति दी गयी है।
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