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धर्मशास्त्र का इतिहास
देखिये बुद्ध पूर्णिमा, वैसाख शुक्ल १५ एवं बृहत्संहिता ( ५७।४४), जहाँ बुद्ध प्रतिमा के निर्माण के लिए विधि दी हुई है ।
बुध-व्रत : जब बुध ग्रह विशाखा नक्षत्र में आ जाता है जो सात दिनों तक नक्त विधि से भोजन किया जाता है; पीतल के पात्र में बुध ग्रह की प्रतिमा रखी जानी चाहिये और यह श्वेत मालाओं एवं गन्ध आदि के साथ एक ब्राह्मण को दे दी जाती है; बुध बुद्धि को तीव्र करता है और वास्तविक ज्ञान देता है; हेमाद्रि ( व्रत० २. ५७८, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) ।
बुधाष्टमी : जब शुक्ल अष्टमी को बुधवार पड़ता है तो व्रत का आरम्भ होता है; एकभक्त विधि; आठ मियों पर क्रम से आठ जलपूर्ण घट, जिनमें एक स्वर्ण-खण्ड रख दिया जाता है, विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियों के साथ दान कर दिये जाते हैं; अन्त में बुध की एक स्वर्ण- प्रतिमा भी दान रूप में दी जाती है। हेमाद्रि ( व्रत० १, ८६६-८७३, भविष्योत्तरपुराण ५४।१-५९ से उद्धरण) । प्रत्येकअष्टमी पर ऐल पुरूरवा तथा मिथि और उसकी कन्या उर्मिला की गाथाएँ सुनी जाती हैं । वर्षक्रियाकौमुदी ( ३९-४०) ने इस व्रत पर राजमार्तण्ड के तीन श्लोक उद्धृत किये हैं जो व्रततत्त्व ( पृ० १५१ ) में रखे गये हैं । व्रतराज ( २५६ - २६५ ) ने इस व्रत का एवं इसके उद्यापन का उल्लेख किया है।
बुद्ध्यवाप्ति : चैत्र पूर्णिमा के उपरान्त आरम्भ होती है; एक मास; नृसिंह की पूजा; सरसों से प्रतिदिन होम ; त्रिमधुर ( तीन मधुर पदार्थ ) से ब्रह्म-भोज तथा वैसाख पूर्णिमा पर सोने का दान विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।२०६।१-५) ।
बृहत्तपो व्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल १ पर आरम्भ; इसे बृहत्तपा कहा जाता है; देवता, शिव एक या १६ वर्षों तक इससे ब्रह्म-हत्या का पाप भी कट जाता है; हेमाद्रि (काल, १०५ - १०६ ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि ( ८० ) ; देखिए विस्तार के लिए भविष्योत्तरपुराण ( १२ ) ।
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बृहद्-गौरीव्रत : भाद्र कृष्ण ३ पर ( अंमान्त गणना से ) ; चन्द्रोदय पर प्रारम्भ; केवल नारियों के लिए; दोर्ली नामक पौधा जड़-मूल के साथ लाया जाता है, उसे बालू की वेदी पर रख कर जल छिड़का जाता है; चन्द्रोदय को देख कर नारी को स्नान करना चाहिये; एक घट में वरुण की पूजा और तब विभिन्न उपचारों से गौरी की पूजा; गौरी के नाम पर गले में एक धागा पहन लेना चाहिये; पाँच वर्षों तक; व्रतराज ( १११-११४, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण); व्रतार्क (भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण); दोनों के मत से यह कर्णाटक में विख्यात है।
ब्रह्मकूर्वव्रत : (१) कार्तिक कृष्ण १४ पर; उपवास एवं पञ्चगव्य ( विभिन्न रंगों वाली गायों से मूत्र, गोबर, दूध, दही एवं घृत लिया जाता है); दूसरे दिन देवों एवं ब्राह्मणों की पूजा और तब भोजन ग्रहण; सभी पाप कट जाते हैं; हेमाद्रि (व्रत० २ १४७, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण); (२) १४ को उपवास, पूर्णिमा को पंचगव्यग्रहण तथा हविष्य भोजन; एक वर्ष तक प्रत्येक मास में; हेमाद्रि ( व्रत० २, २३८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण ) ; (३) वही जो ( २ ) है किन्तु यहाँ अमावस्था एवं पूर्णिमा पर दो बार; हेमाद्रि ( व्रत० २,९३७, वराहपुराण से उद्धरण) ।
ब्रह्मगायत्री : कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४१७ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २, ६९४, पद्मपुराण से उद्धरण ) ; कोई वर्णन नहीं ।
ब्रह्मद्वादशी : पौष शुक्ल १२ से जब कि ज्येष्ठा नक्षत्र होता है तिथि; देवता विष्णु; एक वर्ष तक प्रत्येक मास में विष्णु-पूजा और उस दिन उपवास; प्रत्येक मास में विभिन्न वस्तुओं का दान, यथा — घी, चावल एवं जौ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२२०११-६) ।
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