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धर्मशास्त्र का इतिहास पाप मक्त होता है और सूर्य-लोक जाता है ; मत्स्यपुराण (७६।१-१३); कृत्यकल्पतरु (२१३-२१४); हेमाद्रि (वत० १, ७४३-७४४, पद्मपुराण ५।२१।२४९-२६२ से उद्धरण)। - फलाहारहरिप्रियवत : विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१४९।१-१०) में इसे चतुर्मूतिव्रत कहा गया है। वसन्त में विषव दिन पर ३ दिनों के लिए उपवास आरम्भ ; वासुदेव-पूजा; तीन मासों तक प्रतिदिन वासुदेव-पूजा; तीन मासों तक केवल फलों का सेवन ; शरद् विषुव में तीन मासों तक उपवास, प्रद्युम्न-पूजा; केवल यावक पर रहना; वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को दान ; विष्णुलोक की प्राप्ति ।
फाल्गुन-कृत्य : हेमाद्रि (व्रत० २, ७९७-७९९); कृत्यरत्नाकर (५१५-५३१); वर्षक्रियाकौमुदी (५०६५१७) ; निर्णय-सिन्धु (२२२-२२९); स्मृतिकौस्तुभ (५१३-५१९)। यह द्रष्टव्य है कि सामान्यतः सभी बृहत् वार्षिक उत्सव दक्षिण भारत में छोटे या बड़े मन्दिरों में फाल्गुन मास में मनाये जाते हैं। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं। फाल्गुन शुक्ल ८, को लक्ष्मी एवं सीता की पूजा गन्ध आदि से की जाती है (कृत्यकल्पतरु, व्रत० ४४१-४४३; कृत्यरत्नाकर ५२७, ब्रह्मपुराण से उद्धरण) । फाल्गुन पूर्णिमा पर, यदि फाल्गुनी-नक्षत्र हो तो एक पलंग, बिछावन के साथ दिया जाता है इससे सुन्दर स्त्री एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है (विष्णुधर्मसूत्र ९०); अर्यमा एवं अदिति से कश्यप, अत्रि एवं अनुसूया से चन्द्र फाल्गुन पूर्णिमा को उत्पन्न हुए थे अतः सूर्य एवं चन्द्र की पूजा चन्द्रोदय के समय होती है और गान, नृत्य एवं संगीत का दौर चलता है; कृत्यरत्नाकर (५३०); कृत्यकल्पतरु (नयत्कालिक काण्ड, ४४३); इस पूर्णिमा पर उत्तिर नामक एक मन्दिर-उत्सव मनाया जाता है।
फाल्गुनश्रवणद्वादशी : जब द्वादशी श्रवण-नक्षत्र में हो तब उपवास एवं हरि-पूजा; निर्णयामृत, नीलमतपुराण (पृ. ५२, श्लोक ६२६-६२७) ।
बकपञ्चक : जब विष्णु शयन से उठते हैं. तो कार्तिक शुक्ल ११ से पाँच दिन कार्तिक पूर्णिमा तक बकपञ्चक कहलाता है, और ऐसा कहा गया है कि इन दिनों में सारस (बक) भी मांस नहीं खाता; अतः मनुष्यों को इन दिनों मांस-परित्याग करना चाहिये; कालविवेक (३३८); कृत्यरत्नाकर (४२५); वर्षक्रियाकौमुदी (४७९); कृत्यतत्त्व (४५४)।
बकुलामावास्या : पौष अमावास्या पर; पितरों को बकुल पुष्पों, और खीर (चावल, दूध एवं शक्कर पका कर) से सन्तुष्ट करना चाहिये ; गदाधरपद्धति (कालसार, ४४६)।
बलि-प्रतिपद् : देखिये गत अध्याय-१०। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि विष्णु ने इन्द्र के लिए बलि से लक्ष्मी छीन ली थी (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, पृ० ५९, ६२) ।
बलि-प्रतिपत्-रथयात्रा-व्रत : कार्तिक शुक्ल १ पर; पूर्व अमावास्या पर उपवास; देवता, ब्रह्मा एवं अग्नि ; रथ पर अग्नि की पूजा; विद्वान् ब्राह्मण रथ खींचते हैं और उसे ब्राह्मण कर्ता के कहने पर नगर में घुमाते हैं; ब्रह्मा के दक्षिण पक्ष में सावित्री की प्रतिमा भी रहती है,; रथ को विभिन्न स्थानों पर रोका जाता है, आरती की जाती है; वे सभी लोग जो इस यात्रा में भाग लेते हैं, यथा-खींचने वाले, आरती करने वाले तथा भक्तिपूर्वक दर्शन करने वाले, सर्वोत्तम स्थान के भागी होते हैं ; कार्तिक शुक्ल १ बलिप्रतिपद् है, अतएव यह रथयात्रा के नाम से विख्यात है; हेमाद्रि (व्रत० १, ३४५-३४७, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
बस्तत्रिरात्रवत : चैत्र में तीन दिनों तक सूर्य को तीन श्वेत कमल अर्पित होते हैं, प्रतिदिन नक्त-विषि से भोजन ; कुछ सोने के साथ किसी ब्राह्मण को पाँच बकरियाँ (दूध देने वाली) दी जाती हैं। इससे सभी रोग मिट जाते हैं और कर्ता मुक्त हो जाता है; हेमाद्रि (व्रत० २, ३२३, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
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