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________________ व्रत-सूची तक रुद्रलोक में रहता है। मत्स्यपुराण (९६।१-२५), हेमाद्रि (व्रत० २, ९०६-९०९); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४३६-४३९)। ...फलवत : (१) आषाढ़ से आगे चार मासों तक बड़े फलों (यथा-कूष्माण्ड, पनस आदि) का त्याग, कार्तिक में उन्हीं फलों की स्वर्ण-प्रतिमाएँ दो गायों के साथ दान में दी जाती हैं ; देवता, सूर्य ; कर्ता का सूर्यलोक में सम्मान होता है; मत्स्यपुराण (१०१।६२, यह एक षष्टिवत है); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४८); हेमाद्रि (व्रत० २, ८१८, पद्म एवं मत्स्यपुराणों से उद्धरण); (२) कालनिर्णय (१४०, ब्रह्मपुराण का उद्धरण); भाद्र शुक्ल १ पर कर्ता मौन रखता है और तीन प्रकार (प्रत्येक दल में १६ फल) के फलों को पका कर देवता को अर्पित कर किसी आह्मण को दे देता है। फलषष्ठीव्रत : मार्गशीर्ष ५ से नियमों का पालन, षष्ठी को सोने का कमल एवं एक स्वर्ण-फल बनाया जाता है, षष्ठी को किसी मिट्टी या ताम्र के पात्र में गुड़ के साथ कमल एवं फल को रखा जाता है और पुष्प आदि से पूजा की जाती है, उपवास किया जाता है; सप्तमी को 'सूर्य मुझ पर प्रसन्न हो' के साथ उनका दान किया जाता है, आगे के पक्ष की पंचमी तक एक फल का त्याग ; यह एक वर्ष तक किया जाता है; प्रत्येक मास में सप्तमी को सूर्य के १२ नाम दुहराये जाते हैं; कर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है और सूर्यलोक में सम्मानित होता है; हेमाद्रि (व्रत० १, ६०२-६०४, भविष्योत्तरपुराण .३९।१-१२ से उद्धरण)। फलसंक्रान्तिवत : संक्रान्ति दिन पर स्नान के उपरान्त पुष्पों आदि से सूर्य-पूजा और किसी ब्राह्मण को शक्कर से पूर्ण एक पात्र एवं ८ फलों का दान तथा इसके उपरान्त एक घट में सूर्य की स्वर्ण-प्रतिमा रख कर पुष्पों आदि से पूजा करना; हेमाद्रि (व्रत० २, ७३६, स्कन्दपुराण से उद्धरण)। .. फलसप्तमी : (१) भाद्रपद शुक्ल ७ पर उपवास एवं सूर्य-पूजा; अष्टमी के प्रातः सूर्य-पूजा; ब्राह्मणों को खजूर, नारियल एवं मातुलुंग फलों का दान और सूर्य प्रसन्न हों' का उच्चारण; अष्टमी को कर्ता 'मेरी सभी कामनाएँ पूर्ण हों के साथ एक छोटा फल खाये; भर पेट केवल फल खाया जा सकता है; एक वर्ष तक ; व्रत से कर्ता को पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है। कृत्यकल्पतरु (व्रत० २०४-२०५); हेमाद्रि (व्रत० १, ७०१-७०२); दोनों में भविष्यपुराण (११२१५।२४-२७) के उद्धरण; (२) भाद्रपद शुक्ल ४, ५, ६ को कर्ता को क्रम से अयाचित (बिना मांगे या याचना किये जो प्राप्त हो जाय उसे खाना), एकभक्त (केवल एक बार मध्याह्न के उपरान्त खाना) एवं उपवास का पालन करना चाहिये और गन्ध आदि से सूर्य-पूजा करनी चाहिये तथा सूर्य-प्रतिमा की वेदी के पास रात्रि में शयन करना चाहिये ; सप्तमी को सूर्य-पूजा के उपरान्त फलों का नैवेद्य देना चाहिये और ब्रह्म-भोज देने के उपरान्त स्वयं खाना चाहिये ; यदि फल न मिले तो चावल या गेहूँ को घी एवं गुड़ में मिला कर पकाना चाहिये तथा नागकेसर एवं जातिफल का नैवेद्य बनाना चाहिये ; यह एक वर्ष तक किया जाता है, अन्त में, यदि सामर्थ्य होतो स्वर्णिम फल, बछड़े के साथ गाय, भूमि, एक घर, वस्त्र, ताम्र-पत्र एवं प्रवाल का दान करना चाहिये; यदि दरिद्र हो तो केवल फल, तिल-चूर्ण खिलाना चाहिये और चांदी के फलों का दान देना चाहिये ; कर्ता दारिद्रय, और कठोरता से छुटकारा पा जाता है और सूर्य-लोक जाता है ; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ११७-१२१); हेमाद्रि (व्रत० १,७३१-७३४, भविष्यपुराण ११६४१३६-६१ से उद्धरण); (३) मार्गशीर्ष शुक्ल ५ से नियम-पालन, षष्ठी को उपवास, स्वर्ण कमल एवं शक्कर के साथ एक फल का 'सूर्य मुझसे प्रसन्न हो' मन्त्र के साथ दान ; सप्तमी को दूध के साथ ब्राह्मण-भोजन; कर्ता को कृष्ण ५ तक के लिए एक फल का त्याग कर देना होता है; एक वर्ष तक, प्रत्येक मास में सूर्य के विभिन्न नाम का उपयोग; वर्ष के अन्त में ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी को वस्त्र, घट, शक्कर, सोने का कमल एवं फल.का दान ; कत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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