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धर्मशास्त्र का इतिहास प्राप्तिनत : जो एक वर्ष तक एकभक्त रह कर जलपूर्ण घट एवं भोजन का दान करता है वह एक कल्प तक शिवलोक में वास करता है; मत्स्यपुराण (१०११५५); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४७, ३४ वाँ षष्टिव्रत); हेमाद्रि (व्रत० २, ८६६, पद्मपुराण से उद्धरण)।
___ प्रावरणषष्ठी : मार्गशीर्ष ६ पर; जाड़े से बचने के लिए देवों एवं ब्राह्मणों को कुछ (यथा-कम्बल) देना चाहिए; गदाधरपद्धति (कालसार अंश, ८४) ।
प्रावरणोत्सव : मार्गशीर्ष शुक्ल ६ पर पुरुषोत्तम की १२ यात्राओं में एक ; गदाधरपद्धति (कालसार अंश, १८९)।
प्रीतिव्रत : वह जो आषाढ़ से आगे चार मासों तक तैल-त्याग कर देता है और व्यज्जनों के साथ भोजन-दान करता है, विष्णुलोक जाता है; मत्स्यपुराण (१०११६); कृत्यकल्पतरु (४०)।
प्रेतचतुर्दशी : कार्तिक कृष्ण १४ पर; रात्रि से ही ब्रतारम्भ हो जाता है, यदि साथ ही मंगल एवं चित्रा-नक्षत्र हों तो सोने में सुहागा, पुण्य बढ़ जाता है; देवता, शिव; यदि १४ विद्धा हो तो बह दिन जब १४ वीं तिथि रात्रि तक रहती है श्रेष्ठ गिनी जानी चाहिये ; १४ वीं को उपवास; शिव-पूजन, शिव-भक्तों को भोजन एवं दान; इस तिथि पर गंगा-स्नान से पाप-मुक्ति मिलती है ; सिर पर अपामार्ग की टहनी घुमानी चाहिये और यम के १४ नामों को लेकर यम-तर्पण करना चाहिये ; नदी, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के मन्दिरों, घरों,एवं चौराहों पर दीप-मालाएँ जलानी चाहिये; अपने कुटुम्ब की २१ पीढ़ियों के साथ कर्ता शिवलोक चला जाता है; इस तिथि पर कुटुम्ब के उन मृत व्यक्तियों के लिए, जो या तो युद्ध में मारे गये रहते हैं या अमावास्या में मरे रहते हैं, मशाल जलाये जाते हैं; कर्ता प्रेतोपाख्यान नामक गाथा सुनता है जो सम्वत्सरप्रदीप (वर्षक्रियाकौमदी ४६१-४६७ ) में संगृहीत है और जिसमें उन पाँच प्रतों की कथाएँ हैं जिनकी एक ब्राह्मण से भेंट हुई थी; यह गाथा भीष्म ने युगिष्ठिर को सुनायी थी; भीष्म ने यह बताया है कि किन कर्मों से व्यक्ति प्रेत हो जाता है और किन कर्मों से प्रेतयोनि से छुटकारा होता है ; कर्ता को कृत्यचिन्तामणि में वणित १४ शाकों (तरकारियों) का सेवन करना चाहिये ; राजमार्तण्ड (१३३८-१३४५); वर्ष क्रिया कौमुदी (४५९-४६७); कृत्यतत्त्व (४७४); समयमयूख (१००), स्मृति कौस्तुभ (३७१); पुरुषार्थचिन्तामणि (२४२-२४३); तिथितत्त्व (१२४)। यह सम्भवतः इसीलिए प्रेत-चतुर्दशी कहलाती है क्योंकि इस अवसर पर प्रेतोपाख्यान सुनाया जाता है।
फलतृतीया : शुक्ल की तृतीया से प्रारम्भ; एक वर्ष तक; देवी (दुर्गा) की पूजा; सब के लिए, किन्तु विशेषतः स्त्रियों के लिए; फलों का दान; सम्पादन-काल में फलों का त्याग, नक्त-विधि; गेहूँ एवं विभिन्न प्रकार की दालों (यथा--चना, मुद्ग, माष आदि) का प्रयोग; प्रतिफल, धन, धान्य का प्राचुर्य एवं दुर्भाग्य की हीनता; हेमाद्रि (व्रत० १, ५००, पद्मपुराण, प्रभासखण्ड से उद्धरण)।
फलत्यागवत : मार्गशीर्ष शुक्ल की ३, ८, १२ या १४ वीं तिथि ; एक वर्ष तक ; देवता, शिव ; कर्ता फलों का त्याग करता है, केवल १८ धान्यों का प्रयोग; नन्दी एवं धर्मराज के साथ शिव की प्रतिमा का निर्माण; १६ प्रकार (यथा-कूष्माण्ड, आम, बदर, केला आदि) के फलों की स्वर्णिम प्रतिमाएं बनानी चाहिए, १६ अन्य छोटे-छोटे फलों (यथा-आमलक, उदुम्बर)की चाँदी की प्रतिनिधि-प्रतिमाएँ भी बनानी चाहिये तथा १६ अन्य फलों (यथा-इमली, इंगुद आदि) की ताम्र-प्रतिमाएं बनायी जाती हैं; धान्य की एक राशि पर श्वेत वस्त्र से ढंके दो जलपूर्ण घट रखे जाते हैं तथा एक पलंग बनवाया जाता है; वर्ष के अन्त में ये सभी वस्तुएँ एक सपत्नीक ब्राह्मण को दान में दे दी जाती हैं, यदि यह सब देने में असमर्थता हो तो केवल धातु-निर्मित फल घड़े एवं शिव तथा धर्म की स्वणिम प्रतिमाएं दे दी जाती हैं; कर्ता सहस्रों युगों
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