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________________ व्रत-सूची प्रजापति का भोजन है तथा जो लोग दिन में मैथुन करते हैं वे प्राण पर आक्रमण करते हैं और जो लोग रात्रि में संभोग करते हैं वे ब्रह्मचर्य-पालन करते हैं; जो लोग प्रजापति व्रत करते हैं वे पुत्र एवं पुत्री उत्पन्न करते हैं।' प्रश्नोपनिषद् (१।१५) में प्रजापतिव्रत का अर्थ है रात्रि में संभोग; यह अर्थ शबर के अर्थ से भिन्न है। प्रतिपत्-प्रत : अग्निपुराण (१७६, केवल दो व्रत); कृत्यकल्पतरु (३५-४०); हेमाद्रि (व्रत० १, ३३५३६५); कालनिर्णय (१४०-१४९); पुरुषचिन्तामणि (५६-८१); व्रतराज (४९-७८); हेमाद्रि (कालसार, ६१४, भविष्यपुराण का उद्धरण); इन सभी ग्रन्थों में आया है कि चैत्र, कार्तिक एवं आश्विन की पहली तिथियाँ पवित्रतम हैं (हेमाद्रि, वत० ३५० ने भी ऐसा कहा है)। यदि प्रतिपद् विद्धा होतो सभी दान द्वितीया से युक्त प्रतिपद् पर होना चाहिए; कालनिर्णय (१४०)। प्रतिमावत : कार्तिक शुक्ल १४ से आरम्भ ; तिथिव्रत; एक वर्ष ; देवता, उमा एवं शिव; चावल के आटे से प्रतिमाएं बनायी जाती हैं ; सैकड़ों दीप जलाये जाते हैं, प्रतिमाओं पर कुंकुम लगाया जाता है; धूप गुग्गुल का होता है; दूध एवं घृत की १०८ आहुतियाँ ; हेमाद्रि (व्रत० २, ५७-५८, कालोत्तरपुराण से उद्धरण)। प्रथमाष्टमी : भुवनेश्वर की १४ यात्राओं में यह प्रथम है; मार्गशीर्ष कृष्ण ८; प्रथम पुत्र की दीर्घायु के लिए सम्पादित ; गणेश एवं वरुण की पूजा, भुवनेश्वर को प्रणाम ; गदाघरपद्धति (कालसार ११५-११६, १९१)। प्रदीप्तनवमी : आश्विन शुक्ल ९ पर; तिथिव्रत; एक वर्ष; १६ अक्षरों वाले (ओं महाभगवत्यै महिषासुरमर्दिन्य हुं फट्) मंत्र के साथ देवी-पूजा; अग्नि में गुग्गुल डाल कर शिव-पूजा; अंगूठे एवं तर्जनी में घास का गुच्छा जब तक जलता रहे तब तक जितना खाया जा सके खाना चाहिये ; हेमाद्रि (व्रत० १, ८९९-९००, देवीपुराण से उबरण)। प्रदोष : देखिये गत अध्याय-५। प्रदोषव्रत : त्रयोदशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में जो व्यक्ति किसी भेंट के साथ शिव-प्रतिमा का दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त होता है ; हेमाद्रि (व्रत० २, १८, भविष्यपुराण से उद्धरण)। प्रपादान : चैत्र शुक्ल प्रथमा से आरम्भ ; सभी को चार मासों तक जल देना; पितर लोग सन्तुष्ट हो जाते हैं। पुरुषचिन्तामणि (५७); स्मृतिकौस्तुभ (८९, अपरार्क का उद्धरण)। प्रबोध : विष्णु एवं अन्य देवों का कार्तिक में शयन से उठना; देखिये गत अध्याय-५। प्रभा-वत : जो आधे मास तक उपवास करता है और अन्त में दो कपिला गायों का दान काता है वह ब्रह्म लोक जाता है और देवों से सम्मानित होता है; मत्स्यपुराण (१०११५४); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४७); हेमाद्रि (व्रत० २, ८८४-८५, पद्मपुराण से)। कृत्यकल्पतरु में इसे ३३ वा षष्टिव्रत कहा गया है। लान : भुजबलनिबन्ध (पृ. ३५०, श्लोक १५३०) एवं राजमार्तण्ड (श्लोक १३६१) में आया है कि व्यक्ति को तुला, मकर एवं मेषराशियों में पड़ने वाले सूर्य के समय प्रातः स्नान करना चाहिये ; कृत्यरत्नाकर (१४९) एवं वर्षक्रियाकौमुदी ने भी यह उद्धरण दिया है ; विष्णुधर्मसूत्र (६४१८) में ऐसा आया है कि जो व्यक्ति प्रातःस्नान करता है उसे अरुणोदय के समय ऐसा करना चाहिए। प्राजापत्यव्रत : जो व्यक्ति कृच्छ प्रायश्चित्त के अन्त में गोदान करता है और अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्रह्म-भोज कराता है वह शंकर के लोक में पहुंचता है ; मत्स्यपुराण (१०११६६); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४८); हेमाद्रि (व्रत० २, ८८३, पपपुराण से उद्धरण)। कृत्यकल्पतरु (व्रत०) में यही ४४ वाँ षष्टिव्रत है। प्रातःस्नान: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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