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धर्मशास्त्र का इतिहास पौर्णमासी-व्रत : अग्निपुराण (१९४); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३७४-३८५) में पाँच व्रतों का उल्लेख है और हेमाद्रि (व्रत० २, १६०-२४५) में लगभग ३८ व्रतों का; स्मृतिकौस्तुभ (४३२-४३९), पु० चिन्तामणि (२११३१४); व्रतराज (५८७-६४५)। यहाँ पर पौर्णमासी तिथि के विषय की कुछ महत्वपूर्ण बातें दी जा रही हैं। आषाढ़ पूर्णिमा पर यतियों को अपने सिर मुंडा लेने चाहिए; चातुर्मास्य में ऐसा कभी नहीं करना चाहिए; आषाढ़ से आगे चार या दो मासों तक उन्हें एक स्थान पर ठहरना चाहिए और व्यास-पूजा करनी चाहिए (पु० चिन्तामणि २८४); श्रावण-पूर्णिमा पर उपाकर्म ; भाद्रपद पूर्णिमा पर नान्दीमुख पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए; माघपूर्णिमा को तिल-दान करना चाहिए; फाल्गुन में शुक्ल ५ से १५ तक आग जलाने वाली लकड़ी को चुराने की छूट बच्चों को रहती है,एसी लकडी में आग १५ वीं तिथि को लगायी जाती है (पू० चिन्तामणि ३०९): विष्णधर्मसूत्र (९०१३-५) ने व्यवस्था दी है कि यदि पौष की पूर्णिमा पर पुष्य नक्षत्र हो और कोई व्यक्ति वासुदेवप्रतिमा को घी से नहलाता है और स्वयं श्वत सरसों का तेल अपने शरीर में लगाता है और सवौषधि एवं सुगंधित वस्तुओं से युक्त जल से स्नान करता है तथा विष्णु, इन्द्र एवं बृहस्पति के मन्त्रों के साथ प्रतिमा का पूजन करता है तो वह सुख पाता है; कृत्यरत्नाकर (४८४) ।
पौषव्रत : कृत्यरत्नाकर (४७४.४८६); वर्षक्रियाकौमुदी (४८७-४९०); निर्णयसिन्धु (२११-२१२); स्मृतिकौस्तुभ (४३२-४३९); कुछ बातें यहाँ संक्षेप में दी जा रही हैं। पौष में शिव-लिंग पर किसी पात्र से घृत ढारना, ऐसा करते समय संगीत, नृत्य आदि किये जाते हैं और प्रकाश आदि का सुन्दर प्रबन्ध रहता है। इससे पापमोचन होता है और व्यक्ति शिवलोक जाता है (कृत्यरत्नाकर, ४७८); बुधवार से युक्त पौष ८ पर शिव-पूजार्थ स्नान, जप, होम,ब्रह्म-भोज करने पर सहस्रगुना पुण्य लाभ होता है (निर्णयसिन्धु २११); पौष के दोनों पक्षों की नवमी पर उपवास और प्रतिदिन तीन बार दुर्गा-पूजा, पूरे मास भर नक्त भोजन तथा दुर्गा-प्रतिमा को घृत से नहलाना, आठ कुमारियों को खिलाना, आटे से निर्मित दुर्गा-प्रतिमा की पूजा; इससे दुर्गा-लोक में पहुँच होती है (कृत्यरत्नाकर, ४७७, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
पौष्टिक : वृहत्संहिता (२) ने सांवत्सर (ज्योतिषी) की अर्हताओं में शान्तिक एवं पौष्टिक कृत्यों का ज्ञान भी सम्मिलित किया है। दोनों में अन्तर यह है--पौष्टिक कृत्यों में होम आदि का सम्पादन दीर्घायु करता है, किन्तु शान्तिक कृत्यों में दुष्ट ग्रहों, धूमकेतु आदि असाधारण घटनाओं से उत्पन्न कुप्रभावों से बचने के लिए होम आदि का सम्पादन होता है; निर्णयसिन्ध (४८) । कृत्यकल्पतरु (नयतकालिक २५४) में आया है कि शान्ति का अर्थ है सांसारिक कष्टों का धर्मशास्त्र की विधियों से निवारण।
प्रकीर्णक-व्रत : कई प्रकार के मिले-जुले व्रत; कृत्यकल्पतरु (४५२-४६८); हेमाद्रि (व्रत० २, ८६८-१००२); कृत्यरत्नाकर (५४०-५९३); कालनिर्णय (३२६-३५८); वर्षक्रियाकौमुदी (५३३-५६४) । इन व्रतों में अधिकांश की चर्चा यथास्थान पृथक रूप से हुई है।
प्रकृतिपुरुष-व्रत : चैत्र शुक्ल १ को उपवास ; दूसरे दिन पुरुषसूक्त (ऋ० १०-९०) के साथ पुष्पों आदि से अग्नि-पूजा ; पुरुष एवं प्रकृति को अग्नि एवं सोम के अनुरूप माना गया है और वे ही वासुदेव एवं लक्ष्मी हैं ; श्रीसूक्त के साथ लक्ष्मी-पूजा ; सोने, चाँदी एवं ताम्र का दान; कर्ता को केवल दूध एवं घृत खाना चाहिए; एक वर्ष तक; सभी कामनाओं की पूर्ति एवं मुक्ति-मार्ग की प्राप्ति ; हेमाद्रि (व्रत० १,पृ० ३९१-९२, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
प्रजापतिव्रत : (१) शांखायन ब्रा० (६।६) में आया है--'कर्ता को सूर्योदय एवं सूर्यास्त नहीं देखना चाहिए। ये नियम शबर (जैमिनि ४।११३) द्वारा प्रजापतिव्रत कहे गये हैं और उन्होंने उद्घोषित किया है कि ये 'पुरुषार्थ कहे गये हैं न कि 'कृत्वर्थ'; (२) प्रश्नोपनिषद् (१।१३ एवं १५) में ऐसा आया है--'दिवस प्राण है और राषि
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