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वत-सूची ढारा जाता है, किन्तु शिव एवं सूर्य की पूजा में ऐसा नहीं किया जाता। सभी व्रतों में पायी जाने वाली सामान्य विधि के लिए देखिए व्रतराज (४७-४९)।
पूर्णिमावत : (१) पुष्पों, चन्दन-लेप, धूप आदि से सभी पूर्णिमाओं का सम्मान करना चाहिए और गृहिणी को केवल एक बार और वह भी रात्रि में भोजन करना चाहिए (नक्त-विधि)। यदि सभी पूर्णिमाओं पर व्रत न किया जा सके तो कम-से-कम कार्तिक शुक्ल १५ को अवश्य किया जाना चाहिए; उमा-पूजा; हेमाद्रि (व्रत० २, २४३,विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); (२)श्रावण-पूर्णिमा; उपवास, इन्द्रिय-निग्रह और प्राणायाम करने चाहिए; सभी पापों से मुक्ति हो जाती है ; हेमाद्रि (व्रत० २, २४४); (३) कार्तिक पूर्णिमा पर नारी को घर की दीवार पर उमा एवं शिव का चित्र बनाना चाहिए ; इन दोनों को पूजा गन्ध आदि से की जानी चाहिए और विशेषतः ईख या ईख के रस से बनी वस्तुओं का अर्पण होना चाहिए, बिना तिल के तेल के प्रयोग के नक्त-विधि से भोजन; इस व्रत को सम्पादित करने वाली नारी सौभाग्यवती होती है ; हेमाद्रि (व्रत० २।२४४, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण) । क्षीरस्वामी ने 'पूर्णिमा' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-'पूरणं पूणिः, पूणि मिमीत पूर्णिमा'; देखिए हेमाद्रि (काल० ३११, मत्स्य पुराण से उद्धरण)।
पूर्णिमावत : देखिए पौर्णमासीव्रतों के अन्तर्गत। पूर्वाह्न : देखिए ऊपर अह'; मनु (४।१५२), अनुशासन (१०४।२३); विष्णुपुराण (३।११।२२)। पृथिवीश्रत : देवी के रूप में पृथिवी की पूजा; हेमाद्रि (व्रत० १, ५७४)।
पौरन्दर वत : पंचमी को तिल की खली से हाथी की आकृति बनानी चाहिए, उसे सोने से अलंकृत करना चाहिए, उस पर अंकुश के साथ पीलवान बैठाना चाहिए; हाथी पर लाल वस्त्र रखे जाने चाहिए, उसके दाँत को किती पीतल के पात्र में या कुण्ड में रखना चाहिए; हाथी को दान रूप में किसी ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी को मालाओं, आभूषणों, कुण्डलों एवं नवीन वस्त्रों के साथ देना चाहिए। ऐसा करने से कर्ता इन्द्रलोक में दीर्घ काल तक रहता है ; हेमाद्रि (व्रत० १, ५६७-५६८, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
पौरुष-प्रतिपदा-प्रत : चैत्र शुक्ल प्रथमा से आरम्भ; तिथि व्रत; कर्ता को पवित्र जल में खड़े होकर विष्णु का ध्यान करना चाहिए; गन्ध आदि से पूजा एवं पुरुषसूक्त (ऋ० १०.९०।१-१६) का पाठ; एक वर्ष तक दोनों पक्षों में ; हेमाद्रि (व्रत० १. ३४४, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१२८।१-७ से उद्धरण)।
पौर्णमासी : माघ, कार्तिक, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ की पूर्णिमाओं के कतिपय दान-पत्र, देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका,जिल्द ७ । 'पौर्णमासी' शब्द यों बना है-'पूर्णो माः ('मास' का अर्थ है चन्द्र) पूर्णमाः, तत्र भवा पौर्णमासी (तिथिः), या 'पूर्णो मासो वर्तते अस्यामिति पौर्णमासी'; हेमाद्रि (व्रत० २, १६०) में आया है--'पूर्णमासो भवेद् यस्यां पूर्णमासी ततः स्मृता'; देखिए गत अध्याय ३। जब चन्द्र एवं बृहस्पति एक ही नक्षत्र में हों और तब पूर्णिमा हो तो उस पूर्णिमा या पौर्णमासी को 'महा' कहा जाता है; ऐसी पौर्णमासी पर दान एवं उपवास अक्षय फलदायक होता है (विष्णुधर्मसूत्र ४९।९-१०; कृत्यरत्नाकर, पृ० ४३०-४३१, नयतकालिक काण्ड, ३७३); कालविवेक (३४६-३४७)हेमाद्रि (काल० ६४०); वर्षक्रियाकौमुदी (७७) एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण ११६०।२१)। ऐसी पौर्णमासी को महाचैत्री, महाकार्तिकी, महा-पोषी आदि कहा जाता है। यदि पौर्णमासी या अमावास्या विद्ध हो तो वह तिथि जो प्रतिपदा से युक्त हो, मान्य होती है, किन्तु वटसावित्री को छोड़ कर; कालनिर्णय (३००-३०१); कालतत्त्व-विवेचन (५९-६१); पुरुषार्थचिन्तामणि (२८१)।
पौर्णमासी-कृत्य : कालनिर्णय (३००-३०७); वर्षक्रियाकौमुदी (७७-८१); तिथितत्त्व (१३३); समयमयूख (१०४-११६); स्मृतिकौस्तुभ (२७०-२७१)।
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