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धर्मशास्त्र का इतिहास पुरुषोत्तमयात्रा : गदाधरपद्धति (कालसार अंश, पृ० १८३-१९०) में जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम की १२ यात्राओं का वर्णन है, यथा-स्नान, गुण्डिचा, हरिशयन, दक्षिणायन, पार्श्वपरिवर्तन, उत्थापनैकादशी, प्रावरणोत्सव, पुष्याभिषेक, उत्तरायण, दोलायात्रा, दमनकचतुर्दशी, अक्षयतृतीया ।।
पुलिक-बन्धन : कार्तिक शुक्ल १५ पर पुष्कर का मेला; कृत्यसार-समुच्चय (७)।
पुष्पद्वितीया : कार्तिक शुक्ल द्वितीया से आरम्भ; तिथिव्रत ; एक वर्ष ; देवता अश्विनीकुमार; प्रत्येक शुक्ल द्वितीया पर देवीपूजा में प्रयुक्त पुष्पों को खाया जाता है; अन्त में सोने से बने पुष्पों एवं एक गाय का दान; कर्ता अपनी पत्नी एवं पुत्रों के साथ आनन्द पाता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४०-४१); हेमाद्रि (व्रत० १, ३८१-३८२, भविष्यपुराण १।१९।८१-८९ से उद्धरण)।
पुष्पाष्टमी : श्रावण शुक्ल ८ पर; तिथिव्रत ; देवता शिव; एक वर्ष ; प्रत्येक मास में विभिन्न पुष्प, नैवेद्य और शिव के विभिन्न नाम'; कृत्यकल्पतरु (बत० २३५-२३८); हेमाद्रि (व्रत० १, ८३७-८३९, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
पुष्यवत : यह नक्षत्रव्रत है; शुक्ल पक्ष में सूर्य की उत्तरायण-गति में समृद्धि का इच्छुक व्यक्ति कम-से-कम एक रात्रि उपवास करता है, स्थालीपाक (दूध में चावल या जौ को उबालने से बना भोज्य पदार्थ) बनाता है, कुबेर-पूजा करता है, एक ब्राह्मण को पकाये हुए भोजन के शेषांश को घृत मिलाकर खिलाया जाता है और ब्राह्मण से 'समृद्धि हो' कहलाया जाता है, दूसरे पुष्य-नक्षत्र के आने तक इसे प्रतिदिन दुहराया जाता है ; कर्ता द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ बार आये हुए पुष्य पर क्रम से दो-तीन एवं चार ब्राह्मणों को भोज्य देता है। इस प्रकार ब्राह्मणों की संख्या बढ़ायी जाती रहती है और यह क्रम वर्ष भर चलता रहता है ; कर्ता केवल प्रथम पुष्य पर उपवास करता है; फल यह होता है कि कर्ता बड़ी समृद्धि प्राप्त करता है; आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।८।२०।३-९ एवं सूत्र १०-२२ कुछ प्रतिबंध उपस्थित करते हैं); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३९९-४००); हेमाद्रि (व्रत, २०६२८)।
पुष्यस्नान : यह एक शान्ति है ; हेमाद्रि (व्रत० २।६००-६२८); बृहत्संहिता (४७।१-८७); कालिकापुराण (८९)। रत्नमाला (६७०) में आया है-'जिस प्रकार चौपायों में सिंह सर्वशक्तिमान होता है, उसी प्रकार पुष्य नक्षत्रों में सर्वशक्तिमान है और इसमें किये गये सभी संकल्प पूरे होते हैं, भले ही चन्द्र अनुग्रहपूर्ण न हो।
पुष्यद्वादशी : जब पुष्य नक्षत्र द्वादशी को हो, चन्द्र एवं बृहस्पति का योग हो तथा सूर्य कुम्भ राशि में हो तो ब्रह्मा, हरि एवं शिव या केवल वासुदेव की ही पूजा करनी चाहिए; राजमार्तण्ड (श्लोक १३७५१३७७)।
पुष्याभिषेक : पुरुषोत्तम की १२ यात्राओं में एक ; प्रति वर्ष जब कि पौष में पूर्णिमा पुष्य नक्षत्र में हो; गदाधरपद्धति (कालसार, १८९)।
पुष्यार्कद्वादशी : जब किसी द्वादशी पर सूर्य पुष्य नक्षत्र में हो तो जनार्दन-पूजा होनी चाहिए; इससे सभी पाप कटते हैं ; यदि द्वादशी पर पुष्य नक्षत्र न हो तब भी विधि करनी चाहिए; एकादशी को उपवास एवं द्वादशी को घृतपूर्ण पात्र का दान ; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३५१); हेमाद्रि (व्रत० १, ११७६-११७७)।
पूर्णाहुति : खड़े होकर (कभी भी बैठकर नहीं) मूर्धानं दिवो' के साथ आहुति दी जाती है (ऋ० ६७०१, वाज० संहिता ७।२४; तै० स० १।४।१३।१)। तिथितत्त्व (१००); कृत्यकल्पतरु (शान्तिक)।
पूजा : उपचारों के लिए देखिए गत अध्याय २; अधिकांश व्रतों में पाँच उपचार, यथा--गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य कार्यान्वित होते हैं। कुछ पुष्पों आदि के विषय में ऐसे नियम प्रतिपादित हैं कि वे कुछ देवों एवं देवियों की पूजा में प्रयुक्त नहीं होते, यथा दुर्गा-पूजा में दूर्वा, सूर्य के लिए बिल्व-दल, महाभिषेक में शंख से जल
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