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धर्मशास्त्र का इतिहास (१०८); जब चैत्र शुक्ल १४ मंगल को पड़ती है तो उस दिन गंगा-स्नान और ब्रह्मभोज ; कर्ता पिशाच होने से बच जाता है।
पिष्टाशनवत : प्रत्येक नवमी पर; केवल आटे पर निर्वाह ; महानवमी से प्रारम्भ ; ९ वर्षों तक ; देवता गौरी; सभी कांक्षाओं की पूर्ति ; तिथितत्त्व (५९); वर्षक्रियाकौमुदी (४०-४१)।
पुण्डरीकयज्ञप्राप्ति : द्वादशी को जल-देवता वरुण की पूजा; पुण्डरीक यज्ञ की फल-प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० १, १२०४)। वनपर्व (३०।११७) के मत से यह अश्वमेध एवं राजसूय के समान एक महान् यज्ञ है ; आश्वलायन श्रौतसूत्र (उत्तरषट्क ४।४) जहाँ पुण्डरीकयाग का उल्लेख है।
पुण्यकवत : हरिवंश (२।७७-७९, ब्रह्मवैवर्त ०३, अध्याय ३ एवं ४) में निरूपित ; माघ शुक्ल १३ को आरम्भ ; एक वर्ष तक, हरि की पूजा।
पुत्रकामवत : (१) भाद्रपद पूर्णिमा पर ; पुत्रहीन व्यक्ति अपने गृह में पुत्रेष्टि करने के उपरान्त उस कंदरा (गुहा) में प्रवेश करता है जिसमें रुद्र के निवास कर लेने की कल्पना कर ली जाती है। रुद्र, पार्वती, नन्दी के लिए होम किया जाता है, पूजा की जाती है और उपवास किया जाता है; सहायकों को खिलाकर स्वयं एवं पत्नी को खिलाया जाता है, गुहा की प्रदक्षिणा की जाती है और पत्नी को रुद्र-सम्बन्धी कथाएं सुनायी जाती हैं, पत्नी तीन दिनों तक दूध एवं चावल खाती है; इससे बन्ध्या स्त्री को भी सन्तान उत्पन्न होती है। पति को एक सोने या चाँदी या लोह की शिव-प्रतिमा एक प्रादेश (अँगूठे एवं तर्जनी को फैलाने से जो लम्बाई होती है) की लम्बाई की बनवानी पड़ती है; प्रतिमा-पूजा, उसे अग्नि में तप्त किया जाता है, पुनः उसे एक पात्र में रखकर एक प्रस्थ दूध से अभिषिक्त किया जाता है और उसे पत्नी पी लेती है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३७४-३७६, ब्रह्मपुराण से उद्धरण); हेमाद्रि (व्रत० २, १७१-१७२, पद्मपुराण से उद्धरण); (२) ज्येष्ठ पूर्णमासी पर; तिथिव्रत; एक घड़े को श्वेत चावल से भरकर, श्वेत वस्त्र से ढंककर, श्वेत चन्दन से चिह्नित कर और उसमें एक सोने का सिक्का रखकर स्थापित करना चाहिए, उसके ऊपर एक पीतल के पात्र को गुड़ के साथ रखना चाहिए; ढक्कन के ऊपर ब्रह्मा एवं सावित्री की प्रतिमा रख कर गन्ध आदि से पूजा करनी चाहिए ; दूसरे दिन प्रातः उस घड़े का दान किसी ब्राह्मण को कर देनी चाहिए; ब्रह्म-भोजन, अन्त में स्वयं बिना नमक का भोजन करना चाहिए; यह एक वर्ष तक प्रति मास करना चाहिए ; १३ वें मास में पलंग एवं स्वर्णिम तथा चाँदी की (ब्रह्मा एवं सावित्री की) प्रतिभाएँ घृतधेनु के साथ दान कर देनी चाहिए; तिल से होम ; ब्रह्मा के नाम का जप ; कर्ता (स्त्री पुरुष) सभी पापों से मुक्त हो जाता है तथा उत्तम पुत्रों की प्राप्ति करता है ; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३७६-३७८, यहाँ इसका नाम पुत्रकाम्यव्रत है); हेमाद्रि (व्रत० २, १७३-१७४); कृत्यरत्नाकर (१९३-१९५, पद्मपुराण से उद्धरण)।
पुत्रदविधि : रोहिणी या हस्त नक्षत्र में पड़ने वाला रविवार पुत्रद कहा गया है ; उस दिन उपवास; पुष्पों आदि से सूर्य-पूजा; सूर्य-प्रतिमा के समक्ष शयन ; महाश्वेता मन्त्र (ह्रीं क्रीं सः) का कर्ता द्वारा पाठ; दूसरे दिन करवीर पुष्पों एवं लाल चन्दन से सूर्य एवं रविवार को अर्घ्य तथा पार्वण श्राद्ध का सम्पादन और तीन पिण्डों में मध्य वाले पिण्ड को खाना ; कृत्यकल्पतरु (१५-१६); हेमाद्रि (व्रत० २, ५२४, यहाँ नाम पुरा-पुत्रद-विधि है)।
पुत्रप्राप्तिव्रत : (१) वैशाख शुक्ल ६ पर पंचमी को उपवास कर स्कन्द-पूजा; तिथि ; एक वर्ष; स्कन्द के चार रूप हैं, यथा--स्कन्द, कुमार, विशाख एवं गुह; पुत्र, सम्पत्ति की स्वास्थ्य की इच्छा करने वाला पूर्णकाम होता है ; हेमाद्रि (व्रत० ११६२८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); (२) श्रावण-पूर्णिमा पर; तिथि; शांकरी (दुर्गा) देवता; पुत्रों, विद्या, राज्य एवं यश पाने वाले को इसका सम्पादन करना चाहिए; किसी शुभ नक्षत्र में सोने या चाँदी की एक तलवार या पादुकाएँ या दुर्गा की प्रतिमा बनवानी चाहिए और उगे हुए जौ की वेदी पर रखना
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