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धर्मशास्त्र का इतिहास तथा कम-से-कम ८ हो सकती हैं। पवित्र का अर्थ है यज्ञोपवीत और वह किसी सूत या जयमाला के रूप में देवों की प्रतिमाओं के लिए प्रयुक्त हो सकता है।
पातालवत : चैत्र कृष्ण १ से आरम्भ; एक वर्ष ; सात पातालों की पूजा (एक के उपरान्त एक की पूजा); नक्त-विधि से भोजन करना; वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों के घरों में दीप जलाना एवं श्वेत वस्त्रों का दान देना; हेमाद्रि (व्रत०२,५०६-५०७, भविष्योत्तरपराण ३११५८।१-७ से उद्धरण)।
पात्रवत: माघ शक्ल ११एवं १५; एकादशी पर उपवास'; १५वीं तिथि को एक पवित्र स्थान पर घतपूर्ण स्वर्ण पात्र रखा जाता है, जिस पर नवीन वस्त्र रखे रहते हैं; संगीत एवं नृत्य से जागर (जागरण); प्रातःकाल विष्णु-मन्दिर में पात्र को ले जाना; विष्णु-प्रतिमा को दूध आदि से नहलाना, उसकी पूजा, पात्र का दान तथा 'विष्णु प्रसन्न हो' कहना; प्रचुर नैवेद्य का अर्पण; घर लौट आना, आचार्य को सन्तुष्ट करना; आचार्य, दरिद्रों एवं अन्धों को भरपेट खिलाना; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३९०-९१); हेमाद्रि (व्रत० ३, ३८१-३८२, नरसिंहपुराण से उद्धरण)।
पादोदकस्नान : उत्तराषाढ़-नक्षत्र पर उपवास; श्रवण-नक्षत्र पर हरि-प्रतिमा के पादों को स्नान कराना तथा सोने, चाँदी, ताम्र एवं मिट्टी के चार घट तैयार करना; इसी प्रकार संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध की प्रतिमाओं के पादों को स्नान कराना; कूप झरने, तालाब, नदी के जल से चारों घटों को मन्त्रोच्चारण के साथ भरना और जल से स्नान करना; इससे दुर्भाग्य, बाधाएँ, रोग दूर होते हैं और यश तथा संतति की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत० २, ६५०-६५३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
पापनाशिनी-द्वादशी : जब शुक्ल द्वादशी पुष्य नक्षत्र में हो तो वह अति पवित्र मानी जाती है और इसी से इसे यह संज्ञा मिली है; गदाधरपद्धति (कालसार अंश, १४३) ।
पपनाशिनी-सप्तमी : जब शुक्ल सप्तमी हस्त-नक्षत्र में पड़ती है तो वह अति पवित्र सप्तमी कहलाती है; उस दिन सूर्य-पूजा; कर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है और देवलोक जाता है ; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, १४५-१४६); हेमाद्रि (व्रत० १,७४०-७४१, भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व १०६।४-१४)। यह योग श्रावण कृष्ण पक्ष में पड़ता है, ऐसा हेमाद्रि (वृत०) का कथन है।।
पापनाशिनी-एकादशी : जब फाल्गुन में एकादशी पुष्य नक्षत्र एवं गुरुवार को हो और जब सूर्य कुम्भ या मीन राशि में हो या जब एकादशी पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो उस तिथि को पापनाशिनी कहा जाता है; गदाधरपद्धति (कालसार, वायुपुराण एवं वराहपुराण से उदरण)।
पापमोचन-व्रत : जो व्यक्ति १२ दिनों तक बिना खाये बिल्व वृक्ष के नीचे रहता है वह भ्रूण-हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है; देवता शिव ; हेमाद्रि (व्रत० २, ३९६, सौरपुराण से उद्धरण)।
पारणा या पारण : देखिए गत अध्याय।
पालीचतुर्वशी-वत : भाद्रपद शुक्ल १४ पर; तिथि ; देवता वरुण ; एक मण्डल में वरुण का चित्र बनाया जाता है; सभी वर्गों के लोग (स्त्री-पुरुष) अर्घ्य दे सकते हैं, फलों, पुष्पों, सभी अन्नों, दही आदि से मध्याह्न में पूजा कर सकते हैं ; कर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है और समृद्धि पाता है; हेमाद्रि (व्रत० २, १३०-१३२, भविष्योत्तर पुराण से उद्धरण)।
पाशा : १२वीं तिथि का यह नाम है; वर्षक्रियाकौमुदी (२४२); स्मृतिकौस्तुभ (११४)।
पाशुपतवत : (१) चैत्र में आरम्भ; एक लिंग बनाकर उसे चन्दन-जल से स्नान कराना; एक स्वर्ण-कमल बनाकर उसमें लिंग-स्थापन एवं बिल्व-दल से पूजा; कमल पुष्प (श्वेत, लाल एवं नील) एवं अन्य उपचार ; चैत्र से आरम्भ कर सभी मासों में यह शिवलिंगवत किया जाता है; किन्तु वैशाख मास से आगे के मासों में शिवलिंग
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