________________
१५२
धर्मशास्त्र का इतिहास पञ्चमी के व्रत : ७ व्रत (कृत्यक० ८७-९७); हेमाद्रि (व्रत १, ५३७-५७६) ने २८ व्रतों के नाम लिये हैं ; कालनिर्णय (१८६-१८८); तिथितत्त्व (३२-३४); पुरुषार्थचिन्तामणि (९५-१००); व्रतराज (१९२-२२०)। सभी पञ्चमी-उपवासों (केवल नागपञ्चमी एवं स्कन्द उपवास को छोड़कर) में चतुर्थी से युक्त पंचमी को वरीयता दी जानी चाहिए; कालनिर्णय (१८८); निर्णयामृत (४४-४५); पुरुषार्थचिन्तामणि (९६)।
पञ्चमूतिव्रत : चैत्र शुक्ल ५पर आरम्भ ; उस दिन उपवास एवं शंख, चक्र, गदा, पद्म एवं पृथिवी को चन्दन से एक वत्त में खींचकर उनकी पूजा; वर्ष भर प्रत्येक मास की पंचमी पर; वर्ष के अन्त में पाँच रंगों के वस्त्रों का दान ; राजसूय के समान पुण्य ; हेमाद्रि (व्रत० २, ४६६-४६७, विष्णुधर्मोत्तर ३।१५५।१७ से उद्धरण)।
पञ्चरत्न : कृत्यकल्पतरु (नयतकालकाण्ड, ३६६), हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, ४१३) एवं कृत्यरत्नाकर (४९३) के मत से पाँच रत्न ये हैं--सोना,हीरा (हीरक), नीलमणि (इन्द्रनील), पद्मगग (माणिक्य) एवं मोती: इन सभी ग्रन्थों ने कालिकापूराण का उदूरण दिया है; किन्तु हेमाद्रि (व्रत० १, ४७) ने आदित्यपुराण का उद्धरण देते हुए लिखा है कि पाँच रत्न ये हैं : सोना, चाँदी, मोती, मंगा एवं माणिक ।
पञ्च-लांगल-व्रत : शिलाहारराज गण्डरादित्य (शक संवत् १०३२, अर्थात् सन् १११० ई०) के ताम्रपत्र पर उल्लिखित, जो वैशाख में चन्द्र-ग्रहण के अवसर पर किया गया था (जे० बी० बी० आर० ए० एस०, खण्ड १३, पृ० ३३)। मत्स्यपुराण (अध्याय २८३) में इसके विषय में विस्तार से लिखा हुआ है। किसी पवित्र तिथि या ग्रहण या युगादि तिथि पर भूमि-खण्ड का दान, उसके साथ कठोर काष्ठ के पाँच हल एवं सोने के पाँच हल तथा १० बैल भी दान में दिये जाते हैं।
__पत्रवत : संवत्सरव्रत; एक वर्ष तक नारी को सुपाड़ी एवं चूने के साथ पान का पत्ता किसी नारी अथवा पुरुष को देना चाहिए ; वर्ष के अन्त में सोने या चाँदी का पान एवं मोती का चूना दान में देना चाहिए; उसे दुर्भाग्य नहीं सताता और न उसके मुख से दुर्गन्ध ही निकलती। हेमाद्रि (बत० २, ८६४, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
पत्रिकापूजा : देखिए दुर्गापूजा के अन्तर्गत, गत अध्याय ९। पदद्वयव्रत : देखिए ऊपर 'नन्दापदद्वयव्रत।'
पदार्थवत : मार्गशीर्ष शुक्ल १० पर प्रारम्भ ; उस दिन उपवास तथा दसों दिशाओं एवं दिक्पालों की पूजा; एक वर्ष ; अन्त में एक गोदान ; वांछित वस्तु की प्राप्ति ; हेमाद्रि (व्रत० १, ९६७, विष्णुध० से उद्धरण)। .. पद्मकयोग : (१) जब रविवार सप्तमी से युक्त षष्ठी को होता है तो इसे पद्मकयोग कहते हैं, जो सहस्र सूर्य-ग्रहणों के समान है ; पु० चिन्तामणि (१०५);व्रतराज (२४९); (२) जब सूर्य विशाखा-नक्षत्र में और चन्द्र कृत्तिका में हो तो पद्मकयोग होता है; हेमाद्रि (काल० ६७९, शंख से उद्धरण); कालविवेक (३९०, पद्म एवं विष्णुपुराण से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (४३४); स्मृतिकौस्तुभ (४००); कालविवेक ने व्याख्या की है कि सूर्य विशाखा के चतुर्थ चरण में तथा चन्द्र कृत्तिका के प्रथम पाद (चरण) में होना चाहिए।
पद्मनाभद्वादशी : आश्विन शुक्ल १२ पर; एक घट स्थापित करके उसमें पद्मनाभ (विष्णु) की एक स्वर्ण प्रतिमा डाल देनी चाहिए ; चन्दन-लेप, पुष्पों आदि से उस प्रतिमा की पूजा; दूसरे दिन किसी ब्राह्मण को दान; कृत्यकल्पतरु (बत० ३३३-३३५); हेमाद्रि (व्रत० १, १०३९-४१); कृत्यरत्नाकर (३७३-३७५); इन सभी के वराहपुराण (४९।१-८) को उद्धृत किया है।
पयोव्रत : (१) दीक्षित के लिए, केवल दूध पर ही रहना ; देखिए शतपथ ब्राह्मण (९।५।१।१); (२ प्रत्येक अमावास्या पर केवल दूध का सेवन : एक वर्ष तक: वर्ष के अन्त में श्राद्ध-कर्म.पाँच गायों, वस्त्रोंएवं जलपात्रं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org