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________________ त-सूची १५१ नेत्रवत : चैत्र शुक्ल की दूसरी तिथि ; यह 'चक्षुव्रत' ही है। देखिए ऊपर। पक्ष : एक मास के दो अर्थ भाग, जिन्हें क्रम से शुक्ल एवं कृष्ण तथा पूर्व एवं अपर कहा जाता है। सामान्य नियम यह है कि शुक्ल पक्ष देव-पूजा एवं समृद्धि के लिए किये जाने वाले कृत्यों के लिए व्यवस्थित माना जाता है तथा कृष्ण पक्ष मृत पूर्व-पुरुषों तथा दूसरे को हानि पहुँचाने वाले ऐन्द्रजालिक कृत्यों के लिए व्यवस्थित समझा जाता है। वर्षक्रियाकौमुदी (२३६-२३७. मनु ३।२७८-२७९ का उद्धरण); समयमयूख (१४५); पु० चिन्ता० (३१-३२) । पक्षवधिनी एकादशी : जव पूर्णिमा या अमावास्या आगे की प्रतिपदा तक बढ़ जाती है तो इसे पक्षवधिनी कहा जाता है ; इसी प्रकार एकादशी भी इसी संज्ञा से परिज्ञात होती है जबकि वह द्वादशी तक चली जाती है ; विष्णु की स्वर्ण-प्रतिमा की पूजा ; संगीत एवं नृत्य के साथ जागर (जागरण); पद्मपुराण (६।३८)। पक्षसन्धिव्रत : (दानों पक्षों की सन्धि का व्रत); (१) प्रतिपदा को एक भक्त रहना ; एक वर्ष तक ; वर्ष के अन्त में कपिला गाय का दान ; वैश्वानर-लोक की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० १, ३५५-३५७); मत्स्यपुराण (१०१॥ ८२) ने इसे शिखी-व्रत कहा है ; वर्ष क्रियाकौमुदी (२९); (२) प्रथम तिथि पर खाली भूमि पर रखा गया भोजन करना; त्रिरात्र यज्ञ का फल मिलता है ; हेमाद्रि (व्रत० १, ३५७, पद्मपुराण से उद्धरण)। पञ्चघट-पूर्णिमा : पूर्णिमा देवी को प्रतिमा की पूजा; पाँच पूणिमाओं पर एकभक्त ; अन्त में पाँच पात्रों का, जिनमें कम से दूध, ५ही, घी, मधु एवं श्वेत शक्कर भरी रहती है, दान; कर्ता को सभी वांछित फल प्राप्त होते हैं, हेमाद्रि (व्रत० २, १९५-१९६, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) । पञ्चपिण्डिका-गौरीवत : भाद्रपद शुक्ल ३ पर; उस दिन उपवास; रात्रि के आगमन पर गौरी की चार प्रतिमाएँ गीली मिट्टी से बनायी जाती हैं, एक अतिरिक्त प्रतिमा पर मिट्टी के पाँच खण्ड रखे जाते हैं ; प्रत्येक प्रहर में प्रतिमाओं की पूजा मन्त्र, धूप, कपूर, घृत के दीप, पुष्पों, नैवेद्य एवं अर्ध्य से की जाती है, आगे के तीन प्रहरों में विभिन्न मन्त्रों, धूग, नैवेद्या, पुष्पों आदि का उपयोग किया जाता है ; दूसरे दिन प्रातः सपत्नीक ब्राह्मण को सम्मानित किया जाता है ; गोरो को चारों प्रतिमाएं हथिनी या घोड़ो की पीठ पर रखकर किसी नदी, तालाब या कूप में डाल दी जाती हैं ; हेमाद्रि (व्रत० १, ४८५-४९०, पद्मपुराण के नागरखण्ड से उद्धरण)।। पञ्चभंगदल : आम्र, अश्वत्थ, वट, प्लक्ष एवं उदुम्बर नामक पाँच वृक्षों की पत्तियाँ ; कृत्यकल्पतरु (शान्ति, ७ ए)। पञ्चमहापापनाशनद्वादशी : श्रावण के आरम्भ में ; श्रावण की द्वादशी एवं पूर्णिमा पर कृष्ण के १२ रूपों (यथा--जगन्नाथ, देवकीसुत आदि) की पूजा तथा अमावास्या पर तिल, मुद्ग,गुड एवं चावल के भोजन का अर्पण; पाँच रत्नों (देखिए आगे) का दान ; जिस प्रकार इन्द्र, अहल्या,सोम एवं बलि पापमुक्त हुए थे, उसी प्रकार व्यक्ति भी पञ्च महापापों से मुक्त हो जाता है ; हेमाद्रि (व्रत० १.१२०१-१२०२. भविष्यपुराण से उद्धरण)। पञ्चमहाभूत-व्रत : चैत्र शुक्ल ५ से आरम्भ ; पृथिवी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश-पञ्चमहाभूतों के रूप में हरि-पूजा एवं उपवास; एक वर्ष ; वर्ष के अन्त में वस्त्र-दान ; हेमाद्रि (व्रत० १, ५५२-५५३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)। पञ्चमीवत : मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को सूर्योदय काल में व्रत के नियमों का संकल्प ; स्वर्ण, रजत, पीतल, ताम्र या काष्ठ की लक्ष्मी-प्रतिमा या वस्त्र पर लक्ष्मी का चित्र ; पुष्पों आदि से सिर से पैर तक की पूजा; सधवा नारियों का पुष्पों, कुंकुम एवं मिष्टान्न के थालों से सम्मान ; एक पसर (प्रस्थ) चावल एवं घृतपूर्ण पात्र का 'श्री का हृदय प्रसन्न हो' के साथ दान ; प्रत्येक मास में लक्ष्मी के विभिन्न नामों से पूजा ; प्रतिमा का ब्राह्मण को दान ; भविष्योत्तर पुराण (३७।३८-५८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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