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धर्मशास्त्र का इतिहास एक साध्वी नारी अथवा किसी सुन्दर वेश्या को रजा के सिर पर तीन बार दीप घुमाना चाहिए; यह एक महती शान्ति है जो रोगों को भगाती है और अतुल सम्पत्ति लाती है; इसे सर्वप्रथम राजा अजपाल ने आरम्भ किया और इसे प्रतिवर्ष करना चाहिए; हेमाद्रि (व्रत० १, ११९०-११९४, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
नीराजननवमी : कृष्ण ९ पर (सम्भवतः आश्विन मास में ? ) ; दुर्गा एवं आयुधों की रात्रि में पूजा ; दूसरे दिन सूर्योदय पर इस नीराजन-शान्ति को करना चाहिए; निर्णयामृत (पृ० ७६, श्लोक ९३१-९३३)।
नीराजनविधि : कार्तिक कृष्ण १२ से कार्तिक शुक्ल १ तक (पूर्णिमान्त गणना से); राजा के लिए सम्पादित ; राजा को राजधानी की उत्तर-पूर्व दिशा में एक बृहत् पण्डाल खड़ा करना चाहिए, जिस पर झण्डे आदि एवं तीन तोरण खड़े करने चाहिए ; देव-पूजा एवं होम ; जब सूर्य चित्रा-नक्षत्र से स्वाति में प्रवेश करता है तो कृत्य आरम्भ होते हैं और सम्पूर्ण स्वाति तक चलते रहते हैं ; जलपूर्ण पात्र जो पल्लवों एवं पाँच रंग के धागों से अलंकृत रहते हैं; तोरण के पश्चिम में गज एवं अश्व मन्त्रों के साथ नहलाये जाते हैं ; पुरोहित एक हाथी को भोजन अर्पित करता है; यदि हाथी उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेता है तो विजय की भविष्यवाणी होती है ; यदि वह ग्रहण नहीं करता तो महान भय का पूर्व-निर्देश मिलता है; हाथी की अन्य क्रियाओं से माँति-भाँति की भविष्य आयुधों एवं राजकीय प्रतीकों, यथा--छत्र एवं ध्वज की पूजा; जब तक सूर्य स्वाति में रहते हैं अश्वों एवं हाथियों को सम्मानित किया जाता है ; उन्हें कठोर शब्द नहीं कहे जाते और न उन्हें पीटा हो जाता है ; मण्डप की रक्षा आयुधों से सज्जित कर्मचारी करते रहते हैं और ज्योतिषी, पुरोहित एवं मुख्य पशु-चिकित्सक तथा गज-वैद्य को मण्डप में सदा उपस्थित रहना चाहिए ; उस दिन जब सूर्य स्वाति को छोड़कर विशाखा में प्रविष्ट होता है, घोड़ों एवं हाथियों को अलंकृत किया जाता है, उन पर, तलवार पर, छत्र, टोल आदि पर मन्त्रों का पाठ किया जाता है ; सर्वप्रथम राजा अपने घोड़े पर बैठता है और फिर अपने हाथी पर बैठता है, तोरण से बाहर आता है तथा अपनी सेना एवं नागरिकों के साथ राज-प्रासाद की ओर बढ़ता है और पहुँच कर लोगों को सम्मानित करता है और सब से छुट्टी लेता है। यह शान्ति-कृत्य है और राजाओं द्वारा घोड़ों तथा हाथियों की वृद्धि एवं कल्याण के लिए किया जाना चाहिए; हेमाद्रि (व्रत० २, ६७५-६८०, विष्णुधर्मोत्तरपुराण २।१५९ से उद्धरण) । देखिए मूलग्रन्थ, खण्ड ३, पृ० २३०-२३१ । और देखिए कृत्यरत्नाकर (३३३-३३६); स्मृतिकौस्तुभ (३३४-३४१) । नीराजन एक शान्ति है; राजनीतिप्रकाश (पृ.० ४३३-४३७, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
नीलज्येष्ठा : श्रावण की अष्टमी, जबकि रविवार एवं ज्येष्ठा नक्षत्र हो; सूर्य देवता; इसमें सप्ताह का दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है, उसके उपरान्त नक्षत्र का स्थान है ; कालनिर्णय (१९८, स्कन्दपुराण से उद्धरण)।
नीलवृष-दान : कार्तिक या आश्विन की पूर्णिमा पर; अनुशासनपर्व (१२५।७३-७४); विष्णुधर्मसूत्र (८५।६७); मत्स्यपुराण (२०७।४०); वायुपुराण (८३।११-१२); विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१।१४४।३ एवं १।१४६।५८); पुरुषार्थचिन्तामणि (३०५); स्मृतिकौस्तुभ (४०५-४०६)।
नीलवत : एक वर्ष तक प्रति दिन नक्त-विधि से खाना ; संवत्सरव्रत ; अन्त में नील कमल के साथ शक्कर से युक्त एक पात्र एवं एक बैल का दान ; कर्ता विष्णुलोक पाता है ; मत्स्यपुराण (१०१।५); कृत्यकल्पतरु (४४०, तीसरा षष्टिवत); हेमाद्रि (व्रत० २, ८६५, पद्मपुराण ५।२०।४७-४८ से उद्धरण); मत्स्यपुराण ने इसे 'लीलावत' की संज्ञा दी है।
सिंह-जयन्ती : देखिए ऊपर नरसिंह-चतुर्दशी ; गदाधरपद्धति (कालसार अंश, १५५) । सिंह-द्वादशी : यह नरसिंह-द्वादशी ही है। नृसिंहवत : शुक्ल अष्टमी'; कालनिर्णय (१९६); देखिए ऊपर नरसिंहाष्टमी।
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