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व्रत-सूची
१४९ लोगों को मांसरहित मोजन करना चाहिए ; उस रात्रि में संगीत, गान एवं नृत्य ; दूसरे दिन कुछ विश्राम तथा उसके उपरान्त प्रातःकाल शरीर को कीचड़ से धूमिल कर पिशाचों सा व्यवहार करना चाहिए तथा लज्जाहीन हो अपने मित्रों पर भी कीचड़ छोड़ना चाहिए तथा अश्लील शब्दों का व्यवहार करना चाहिए ; अपराल में स्नान करना चाहिए; जो इस उत्सव में भाग नहीं लेता वह पिशाचों से प्रभावित होता है ; कृत्यकल्पतरु (नयतकाल खण्ड ४११४१३) ; कृत्यरत्नाकर (३७५-३७८); (३) चैत्र शुक्ल १४, शम्भु तथा पिशाचों के संग में निकुम्भ की पूजा; उस रात्रि लोग अपने बच्चों को पिशाचों से बचाते हैं और वेश्या का नृत्य देखते हैं ; कृत्यकल्पतरु (नयतकाल ४४६), कृत्यरत्नाकर (५३४-५३६) ।
निक्षुभार्कचतुष्टय-व्रत : निक्षमा सूर्य की पत्नी है ; कृष्ण १४ को उपवास ; तिथिव्रत ; एक वर्ष तक ; सूर्य एव उसकी पत्नी की मूर्ति की पूजा ; स्त्रियां सूर्यलोक को जाती हैं और पति के रूप में राजा को पाती हैं ; पुरुष भी सूर्यलोक जाते हैं ; महाभारत के पाठक को एक वर्ष तक नियुक्त रखना चाहिए और अन्त में सूर्य एवं निक्षुभा की स्वर्ण-प्रतिमा का उसे दान देना चाहिए, उसकी पत्नी को गहने एवं वस्त्र देने चाहिए; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १५६-१५९); हेमाद्रि (व्रत० १, ६७६-६७९)।
निक्षुभार्कसप्तमी : षष्ठी या सप्तमी या संक्रान्ति या रविवार को प्रारम्भ ; एक वर्ष तक ; सोने या चाँदी या काष्ठ की सूर्य एवं निक्षभाको प्रतिमा को घी आदि से नहलाना चाहिए : उपवास एवं होम; सूर्य-भक्तोंएवं मोज को मोजन ; इसके सम्पादन से वाञ्छित वस्तुओं को प्राप्ति होती है, कर्ता सूर्यलोक तथा अन्य लोकों में जाता है ; कृत्यकल्पतरु (वत० १५३-१५६); हेमाद्रि (व्रत० १, ६७४-६७६); अहल्याकामधेनु (४५७ ए, ४५९ वी) के मत से इसके कई प्रकार हैं--(१) सौर संहिता से; माघ शुक्ल ७ से एक वर्ष ; (२) भविष्यपुराण से; (३) माघ कृष्ण ७ से ; (४) भविष्योत्तरपुराण से।
____ निम्बसप्तमी : वैशाख शुक्ल ७ से प्रारम्भ ; एक वर्ष तक ; सूर्य-पूजा; कमल के चिर पर खखोल्क नामक सूर्य की स्थाप; मूलमन्त्र है--'ओं खखोल्काय नमः'; सूर्य-प्रतिमा के समक्ष १२ आदित्य, जय, विजय, शेष, वासुकि, विनायक, महाश्वेत एवं रानी सुवर्चला की स्थापना ; अन्य देव भी बुलाये जाते हैं ; सप्तमी को निम्बदलों का सेवन तथा सूर्य-प्रतिमा के समक्ष शयन ; अष्टमी को भी सूर्य-पूजा ; कर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है ; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १९८-२०३); हेमाद्रि (व्रत० १, ६९७-७०१); निर्णयामृत (५२)।
निर्जला-एकादशी : ज्येष्ठ शुक्ल ११ ; प्रातः से लेकर दूसरे प्रातः तक उपवास ; संध्या के आचमन आदि को छोड़कर दिन भर जल का सेवन नहीं होना चाहिए ; दूसरे दिन जलपूर्ण पात्र, गुड़ एवं सोने के दान के साथ भोजन का ग्रहण ; इसके सम्पादन से १२ द्वादशियों के समान पुण्य मिलता है और विष्णुलोक की प्राप्ति होती है ; हेमाद्रि (व्रत०१,१०८९-९१); स्मृतिकौस्तुभ (१२२-१२३)।
निषिद्ध : कुछ मासों, तिथियों, सप्ताहों, संक्रान्तियों एवं व्रतों में निषिद्ध बातों एवं कर्मों की तालिका बहुत लम्बी है। कालविवेक (पृ.० ३३३-३४५) ने एक लम्बी सूची दी है, किन्तु अन्त में कहा है (पृ० ३४५) कि वेदज्ञों, स्मृतिज्ञों एवं पुरणिज्ञों ने कितनी ही बार और कतिपय अवसरों पर जो निषेध बताये हैं वे इतने अधिक हैं कि मैं अकेला नहीं बता सकता, उन्हें बताने के लिए मुझे एक सहस्र वर्ष जीना पड़ेगा, अतः मैंने वही बताया है जिसे प्रामाणिक ग्रन्थों से समझा है अथवा जो निबन्धों में संगृहीत हैं, अन्य लोग शेष के विषय में लिखेंगे।
नीराजन-द्वादशी : कार्तिक शुक्ल १२ पर; जब विष्णु शयन से उठते हैं उस रात्रि के आरम्भ में इसका सम्पादन होता है ; विष्णु-प्रतिमा एवं अन्य देवों, यथा---सूर्य, शिव, गौरी, अपने माता-पिता, गायों, अश्वों, गजों के समक्ष दीप की आरती करना; राजा को अपने प्रासाद में राजकीय वस्तुओं के प्रतीकों की पूजा करनी चाहिए;
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