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धर्मशास्त्र का इतिहास नागवत : (१) कार्तिक शुक्ल ४ पर; उस दिन उपवास; शेष, शंखपाल एवं अन्य नागों की पुष्पों, चन्दन लेप से पूजा तथा प्रातः एवं मध्याह्न में दूध से उन्हें सन्तुष्ट करना; इससे सौ से हानि नहीं होती; (२) कमलदलों पर पंचमी को नागप्रतिमा की पुष्पों, मन्त्रों आदि तथा घी, दूध, दही एवं मधु की धारा से पूजा ; होम ; विष से छुटकारा; पुत्र, पत्नी एवं समृद्धि की प्राप्ति । हेमाद्रि (व्रत० १, ५७२, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
नामतृतीया : मार्गशीर्ष शुक्ल ३ से आरम्भ ; तिथिव्रत ; एक वर्ष ; प्रति मास गौरी के १२ नामों में एक की पूजा; १२ नाम ये हैं--गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, कान्ति, सरस्वती, मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा, नारायणी; कर्ता स्वर्ग को जायेगा ; या महेश्वर के अर्धनारीश्वर रूप की पूजा; इसे करने से पत्नीवियोग नहीं होता; या हरिहर की प्रतिमा का किसी एक नाम से पूजन करना (केशव से दामोदर तक १२ नाम); हेमाद्रि (व्रत० १,४७७ ४७८); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ५५-५६)।
नामद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल १२ से प्रारम्भ ; उस दिन उपवास ; तिथिव्रत ; विष्णु के १२ नामों में एक लेना चाहिए, यथा--मार्गशीर्ष एवं पौष में नारायण, माघ में माधव . . . कार्तिक में दामोदर ; वर्ष के अन्त में बछड़े के साथ गाय, चप्पल, वस्त्र आदि १२ ब्राह्मणों को देना चाहिए ; कर्ता विष्णुलोक जाता है ; हेमाद्रि (व्रत० १, १०९७ ११०१); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३४७)।
नामनवमी : आश्विन शुक्ल पर आरम्भ ; एक वर्ष के लिए ; विभिन्न नामों के अन्तर्गत दुर्गा की पूजा, प्रत्येक मास में विभिन्न पुष्पों का प्रयोग. ब्राह्मण कुमारियों को भोजन ; अन्त में दुर्गा-भक्त ब्राह्मणों को गोदान एवं भरपेट भोजन ; सभी पापों से मुक्ति; दुर्गालोक की प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु (व्रत० २८३-२९८); हेमाद्रि (व्रत० १, ९२८-९३३)।
नामसप्तमी : (१) सप्तमी तिथि को भक्त को सूर्य का ध्यान करना चाहिए और कुछ निषेधों का पालन करना चाहिए, यथा--तेल का स्पर्श न करना, गहरा नीला वस्त्र धारण न करना, आमलक फल से स्नान न करना; किसी से झगडा न करना, मदिरा न पीना, चाण्डाल से बात न करना, रजस्वला से बात न करना, जुआ न खेलना, आँसू न गिराना, कन्द, मूल, फल, पुष्प एवं पत्तियाँ न खाना; (२) चैत्र शुक्ला ७ से प्रारम्भ ; प्रत्येक मास में विभिन्न नामों (धाता, अर्थमा, मित्र आदि) से सूर्य की पूजा ; प्रत्येक सप्तमी को घी से भोजकों (मगों) को खिलाना एवं लाल वस्त्र देना ; कृत्यकल्पतरु (व्रत १२१-१२३), हेमाद्रि (व्रत १, ७२६-७२८); कृत्यरत्नाकर (१२४-१२६, भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व ६५।१-७ एवं १९-३४ से उद्धरण)।
नारळी या नारली पूर्णिमा : श्रावण शुक्ल १५ पर; देखिए गत अध्याय ७ (पृ० ५३, वरुण-सम्मान)। . नासत्यपूजाचक्षुर्वत : देखिए 'नेत्रव्रत।'
निकुम्भपूजा : (१) चैत्र शुक्ल १४ को उपवास, पूर्णिमा को हरि-पूजा; निकुम्भ पिशाचो से युद्ध करने जाते हैं ; मिट्टी या घास का पुतला बनाया जाता है और प्रत्येक घर में पुष्पों, नैवेद्य आदि तथा ढोल एवं बाँसुरी से मध्याह्न में पिशाचों की पूजा की जाती है; पुनः चन्द्रोदय के समय पूजा की जाती है ; पुनः उन्हें विदा दे दी जाती है ; कर्ता को संगीत तथा लोगों के साथ एक बड़ा उत्सव मनाना चाहिए ; घास एवं लकड़ी के टुकड़ों से बने सर्प से लोगों को खेलना चाहिए तथा तीन या चार दिनों के उपरान्त उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर वर्ष भर रखना चाहिए ; हेमाद्रि (व्रत० २, २४१-२४२, आदित्यपुराण से उद्धरण); निर्णयामृत (पृ० ६४, श्लोक ७८१-७९०) ने इसे 'चैत्रपिशाच-वर्णनम्' कहा है; (२) आश्विन पूर्णिमा पर; लोगों (नारियों, बच्चों एवं बूढ़ों को छोड़कर) को दिन में भोजन नहीं करना चाहिए, गृह-द्वार पर अग्नि रखना चाहिए तथा उसकी एवं पूर्णिमा, रुद्र, उमा, स्कन्द, नन्दीश्वर तथा रेवन्त की पूजा करनी चाहिए; तिल, चावल एवं माष से निकुम्भ की पूजा; रात्रि में ब्रह्म-मोज,
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