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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास जाता है। व्रत' के अन्त में हरि की स्वर्ण-प्रतिमा को गुड़ के साथ घड़े में रखकर किसी सुपात्र ब्राह्मण को दिया जाता है, पलंग एवं उसके अन्य उपकरण भी दिये जाते हैं। कर्ता अपनी पत्नी की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करता है और व्रत के दिनों में बिना तेल एवं नमक के भोजन करता है। मत्स्यपुराण (५४।३-३०); कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ४००-४०४); हेमाद्रि (व्रत० २, ६९९-७०३); कृत्यरत्नाकर (८७-९१); बृहत्संहिता (अध्याय १०४) । नक्षत्रपूजा-विधि : नक्षत्रों के स्वामियों की पूजा, यथा--अश्विनी, भरणी, कृत्तिका आदि के क्रम से स्वामी अश्विनीकुमारों, यम, अग्नि आदि, की इससे दीर्घ आयु, दुर्घटना-मृत्यु से छुटकारा, समृद्धि की प्राप्ति होती है ; वायुपुराण (८०।१-३९); हेमाद्रि (व्रत० २, ५९४-५९७); कृत्यरत्नाकर (५५७-५६०)। नक्षत्र-विशेषे पदार्थविशेष-निषेध : कुछ नक्षत्रों में कुछ कर्म वजित हैं। यहाँ कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। वर्षक्रियाकौमुदी (८७-८८) एवं तिथितत्त्व (२८) एक श्लोक उद्धृत करते हैं--'चित्रा, हस्त एवं श्रवण में तिल के तेल का प्रयोग, विशाखा एवं अभिजित् में क्षौर कर्म, मूल, मृगशिरा एवं भाद्रपदा में मांस तथा मघा, कृत्रिका एवं उत्तरा में मैथन नहीं करना चाहिए।' देखिए वायुपुराण (१४।५०-५१)। नक्षत्र-विधि-व्रत : मृगशिरा को प्रारम्भ ; पार्वती की पूजा, पार्वती के पाँवों को मूल, गोद को रोहिणी, घुटनों को अश्विनी से सम्बन्धित करके पूजा की जाती है, इसी प्रकार अन्य अंगों को अन्य नक्षत्रों से सम्बन्धित किया जाता है। प्रत्येक नक्षत्र में उपवास किया जाता है, उस नक्षत्र के उपरान्त पारण होता है। विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न प्रकार का मोजन होता है, इसी प्रकार विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न पूष्पो का प्रयोग होता है; इस व्रत से सौन्दर्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है; कृत्यकल्पतरु (ब्रत०, ४११-४१४); हेमाद्रि (व्रत०२,६९६-६९८)। नक्षत्रवत : अग्नि० (१९६), कृत्यकल्पतरु (बत० ३९९-४१७), हेमाद्रि (व्रत० २, ५९३ ७०६) । कृत्यकल्पतरु ने दस का तथा हेमाद्रि (व्रत०) ने ३३ का उल्लेख किया है। अश्विनी से आगे के नक्षत्रों से सम्बन्धित व्रतों का उल्लेख हेमाद्रि (बत०) में है। हेमाद्रि (काल० १२६ १२८), कालनिर्णय (३२७ ३२८) एवं निर्णयामृत (१८) ने व्रतों में किये जाने वाले उपवास आदि का उल्लेख किया है। नियम यह है कि उपवास के समय का नक्षत्र सुर्यास्त के समय या उस समय जब कि चन्द्र का अर्धरात्रि से योग हो, अवश्य उपस्थि धरात्रि के समय कोई निर्दिष्ट नक्षत्र रहता है)। इन दोनों में प्रथम बात मुख्य है; दूसरी उससे कम महत्त्व रखती है। देखिए विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१।६०।२६-२७); कालनिर्णय (३२७); हेमाद्रि (काल०,१२६); वर्षक्रियाकौमुदी (८)। नक्षत्रहोमविधि : हेमाद्रि (वत० २, ६८४-६८८) ने अश्विनी से रेवती तक के २७ नक्षत्रों के लिए पूजा एवं होम की विधि को गर्ग से गद्य में उद्धृत किया है। कितने दिनों तक रोग एवं भय चलता रहेगा, किस देवता का पूजन हो, पुष्पों, नैवेद्य, धूप, समिधा के वृक्ष, पूजा-मन्त्र, अग्नि में डाली जाने वाली प्रमुख वस्तु आदि के विषय में वर्णन है। एक उदाहरण है--रोहिणी के लिए ८ दिन, देवता प्रजापति, नैवेद्य दूध में उबाला हुआ चावल, कमल के पुष्प, साल वृक्ष से निकाली हुई वस्तु की धूप, पूजा-मन्त्र--'नमो ब्रह्मणे।' सभी प्रकार के धान्य अग्नि में डाले जा सकते हैं। आहुतियाँ १०८ होती हैं, फल आरोग्य-लाभ। नक्षत्रार्थव्रत : देखिए ऊपर 'नक्षत्रविधि-व्रत' जो ऐसा ही है। नदीत्रिरातव्रत : जब आषाढ़ में नदी बाढ़ पर होती है, उसके जल को किसी काले घड़े में रखकर घर लाना चाहिए, दूसरे दिन प्रातः नदी में स्नान करके घड़े की पूजा करनी चाहिए, तीन दिनों तक या एक दिन तक उपवास करना चाहिए या एकभक्त होना चाहिए (अर्थात् एक बार खाना चाहिए), अखण्ड दीप जलाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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