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बत-सूची धेनुव्रत : पर्याप्त सोने के साथ आसन्नप्रसवा गाय का दान ; जो कर्ता उस दिन केवल दूध पर रहता है वह सर्वोत्तम धाम (लोक) प्राप्त करता है और पुनः लौटकर नहीं आता है। मत्स्यपुराण (१०१।४९); कृत्यकल्प
तरु (व्रत ४४६)।
ध्वजनवमी : पौष शुक्ल ९; इस तिथि को शम्बरी (शाबरी?) कहा जाता है ; कुमारी एवं सिंहवाहिनी चण्डिका की पूजा झण्डों, मालतीपुष्पों एवं अन्य उपचारों से की जाती है तथा पशुओं की बलि दी जाती है; राजा को देवी के मन्दिर में झण्डा फहराना चाहिए, कुमारियों को खिलाना चाहिए तथा उपवास करना चाहिए या एकमक्त रहना चाहिए ; हेमाद्रि (व्रत० १, ८९१-८९४, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
ध्वजव्रत : गरुड़, ताल वृक्ष (जिससे ताड़ी निकाली जाती है, अमरकोश में तालांक नामक मदिरा का उल्लेख है, बलराम उसके प्रेमी माने जाते हैं), मकर (घड़ियाल) एवं हरिण क्रम से वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध के झण्डों पर होते हैं; उनके वस्त्रों एवं झण्डों का रंग क्रम से पीला, नीला, श्वेत एवं लाल होता है; चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ में प्रतिदिन क्रम से गरुड़ आदि की पूजा उनके अनुकूल रंगीन वस्त्रों एवं पुष्पों से की जाती है; चार मासों के अन्त में ब्राह्मणों को तदनुकूल रंगीन वस्त्र दिये जाते हैं ; इस प्रकार ४-४ मासों के तीन क्रम आते हैं; समय की लम्बाई के अनुसार विभिन्न लोकों में पहुँच होती है। यदि १२ वर्षों तक ऐसा किया जाय तो कर्ता को विष्णु से सायुज्य प्राप्त हो जाता है; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१४६।१-१४) एवं हेमाद्रि (व्रत० २, पृ० ८२९८३१) में इसे चतुतिव्रत कहा गया है।
नक्तचतुर्थी : मार्गशीर्ष शुक्ल ४ को प्रारम्भ ; देवता विनायक; कर्ता को नक्त भोजन करना होता है और पारण तिलयुक्त भोजन से होता है ; एक वर्ष तक; हेमाद्रि (व्रत० १, ५२२-५३६, स्कन्दपु० से उद्धरण)।
नक्तव्रत : यह दिवारात्रिवत है अतः ऐसी तिथि में किया जाता है जो रात्रि एवं दिन दोनों में पड़ती हो (निर्णयामृत १६-१७) । नक्त का अर्थ है दिन में कुछ न खाकर केवल रात्रि में खाना। नक्तव्रत एक मास या चार मासों या एक वर्ष तक चल सकता है। कृत्यरत्नाकर (पृ० २२२, २५५, ३०१-३०३, ४०६,४४५,४७७,४९१४९२) में श्रावण से माघ तक के मासों के नक्तवत' का उल्लेख है; लिंगपुराण (११८३।३-५४) में एक वर्ष के नक्तवत की चर्चा है। और देखिए नारदपुराण (२।४३।११-२३)।
नक्षत्रतिथि-वार-ग्रह-योग-व्रत : हेमाद्रि (व्रत० २, ५८८-५९०, कालोत्तर से उद्धरण) में कुछ विशिष्ट तिथियों एवं सप्ताहों के साथ कुछ नक्षत्रों के योग पर सम्पादित होने वाली पूजाओं का उल्लेख है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं--जब किसी रविवार को चतुर्दशी एवं रेवती नक्षत्र हो या जब अष्टमी एवं मघा नक्षत्र का योग हो तब शिव-पूजा होनी चाहिए और तिल-मोजन होना चाहिए, इसे आदित्यव्रत कहा जाता है, जिसके सम्पादन से कर्ता को तथा उसके पुत्रों एवं सम्बन्धियों को स्वास्थ्य प्राप्त होता है। जब चतुर्दशी को रोहिणी एवं चन्द्र का योग हो या अष्टमी को चन्द्र का योग हो तो चन्द्रवत होता है, जिसमें शिव-पूजा होती है, दूध एवं दही का नैवेद्य होता है, केवल दूध पर रहा जाता है, इससे यश, स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है। जब रेवती, बृहस्पतिवार एवं चतुर्दशी या अष्टमी एवं पुष्य' का योग होता है तो गुरुवत होता है, जिसमें कपिला गाय के दूध में ब्राह्मी का रस मिलाकर सेवन किया जाता है और व्यक्ति वाणी पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। विष्णुधर्मसूत्र (९०११-१५) में मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं कार्तिक पूर्णिमा के उसी नाम वाले नक्षत्र के योग पर किये जाने वाले व्रत का उल्लेख है; दानसागर (६२२-६२६, यहाँ विष्णुधर्मसूत्र का उद्धरण है)।
नक्षत्रपुरुषव्रत : चैत्र में आरम्भ ; वासुदेवमूर्ति-पूजा; कुछ नक्षत्रों, यथा--मल, रोहिणी, अश्विनी का पूजन होता है। दस अवतारों एवं उनके अंगों को आश्लेषा, ज्येष्ठा, श्रवण, पुष्य, स्वाति आदि से सम्बन्धित किया
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