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________________ १४२ धर्मशास्त्र का इतिहास है; किसी ब्राह्मण को एक पसर (प्रस्थ ) अन्न दिया जाता है (इसी से धान्यसंक्रान्ति की संज्ञा बनी है ) ; यह प्रत्येक मास में किया जाता है; हेमाद्रि ( व्रतखण्ड, जिल्द २, ७३०-७३२, स्कन्दपुराण से उद्धरण) । धान्य सप्तक : सात प्रकार के अन्न, यथा--यव (जौ), गेहूं, धान्य, तिल, कंगु, श्यामाक एवं चीनक; हेमाद्रि ( व्रत०, १, ४८, षट् - त्रिशन्मत से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर ( ७०, यहाँ टिप्पणी है कि कुछ लोग चीनक के स्थान पर देवधान्य रखते हैं ) ; विष्णुपुराण (१।६।२१-२२); वायुपुराण (८।१५० -१५२) एवं मार्कण्डेय ० ( ४६ | ६७-६९) ने १७ धान्यों तथा व्रतराज ( पृ० १७ ) ने १८ धान्यों का उल्लेख किया है। धान्य सप्तमी : शुक्ल सप्तमी पर सूर्य पूजा; उस दिन नक्त (केवल एक बार रात्रि में भोजन ); सात धान्यों गृहस्थी के बरतन एवं नमक का दान कर्ता स्वयं तथा अपने सात पूर्व-पुरुषों की रक्षा कर लेता है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ७८७-७८८, भविष्यपुराण से उद्धरण) । धामत्रिरात्र व्रत : हेमाद्रि ( व्रत०२, ३२२, पद्मपुराण से उद्धरण); यह नीचे वाला धाभत्रत ही है। धामव्रत : फाल्गुन की पूर्णिमा पर तीन दिनों के उपवास के उपरान्त कर्ता को एक सुन्दर घर का दान करना होता है; वह सूर्यलोक की प्राप्ति करना चाहता है; मत्स्यपुराण ( १०१।७९ ) : कृत्यकल्पतरु ( व्रत०, ४५०-४५१) ; हेमाद्रि (व्रत० २,३२२) ; यहाँ देवता सूर्य है, 'धामन् का अर्थ' है 'घर'; गरुडपुराण (१।१३७।३) । धारणपारण-व्रतोद्यापन : चातुर्मास्य में एकादशी पर या उससे आगे प्रथम मास में या अन्तिम मास में; उपवास (धारण) एक मास में और पारण दूसरे मास में; एक जलपूर्ण घड़े पर लक्ष्मी एवं नारायण की प्रतिमाओं को रखकर रात्रि में पञ्चामृत, पुष्पों एवं तुलसी के दलों से 'ओं नमो नारायणाय' मन्त्र को १०८ बार कहकर पूजा करनी होती है; अर्घ्य; उबाले हुए तिल एवं चावल का ॠग्वेद (१०।११२।९ ) के मन्त्र के साथ एवं उबाले हुए चावल एवंघी का ऋ० ( १० | १५५ | १ ) के मन्त्र के साथ होम; स्मृतिकौस्तुभ ( ४१४-४१६ ) ; व्रतार्क (३६५ ए-३६६ बी ) । धाराव्रत : चैत्र से आरम्भ; मुख में जल-धारा डार - डालकर पीना; एक वर्ष तक; अन्त में एक नयी प्याऊ ( पौसरा ) बनवाना । इस व्रत से चिन्ता दूर होती है, सौन्दर्य एवं कल्याण की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि ( व्रत०२, ८५३, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण ) । धूप इसको जलाना एक उपचार है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ५०-५१ ) ने धूप के कई मिश्रणों का उल्लेख किया है, यथा अमृत, अनन्त, अक्षधूप, विजयधूप, प्राजापत्य, दस अंगों वाली धूप का भी वर्णन है । कृत्यक० (१३) विजय नामक धूप के आठ अंगों का उल्लेख किया है। भविष्यपुराण ( ११६८।२८-२९ ) का कथन है कि विजय 'धूपों में श्रेष्ठ है, लेपों में चन्दन लेप सर्वोत्तम है, सुरभियों (गन्धों) में कुंकुम सर्वश्रेष्ठ है, पुष्पों में जाती तथा मीठी वस्तुओं में मोदक (लड्डू) सर्वोत्तम है । कृत्यकल्पतरु ( व्रत० १८२ - १८३ ) ने इसको उद्धृत किया है। देखिए गरुड़पुराण (१।१७७।८८-८९) जहाँ ऐसा आया है कि धूप से मक्खियाँ एवं पिस्सू नष्ट हो जाते हैं; कृत्य रत्नाकर (७७-७८); स्मृतिचन्द्रिका ( १२०३ एवं २०४३५ ) ; बाण ( कादम्बरी, प्रथम भाग ) । धूलिवन्दन : होलिका दहन के उपरान्त प्रातःकाल उसकी राख को झुककर प्रणाम करना; पुरुषार्थचिन्तामणि ( ८१ ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( ५१८ ) ; और देखिए गत अध्याय में होलिका के वर्णन का अन्तिम अंश । धृतिव्रत : एक वर्ष तक प्रतिदिन पंचामृत ( दही, दूध, घी, मधु एवं ईख के रस ) से शिवलिंग को स्नान कराना; वर्ष के अन्त में पंचामृत एवं शंख के साथ गोदान; मत्स्यपुराण ( १०१।३३-३४ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४४ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २,८६५ ) । विष्णुपुराण में शिव के स्थान पर विष्णु के स्नान का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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