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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास द्वितीयाव्रत : देखिए अग्निपुराण ( १७७११-२० ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४० - ४८ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १।३६६-३९३) ; कालनिर्णय ( १६९ - १७२ ) ; तिथितत्त्व (२९-३० ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि ( ८२-८४ ) ; व्रतराज (७८-८१) । कृत्यकल्पतरु (व्रत) ने केवल तीन का उल्लेख किया है, यथा--पुष्पद्वितीया, अशून्यशयन ( दो प्रकार ) एवं कान्तिव्रत; किन्तु हेमाद्रि ने ११ प्रकार दिये हैं। निर्णयामृत ने दो प्रकार बताये हैं, यथा -- अशून्यशयन एवं यमद्वितीया और टिप्पणी की है कि अन्य मासों की द्वितीया तिथियों को अन्य व्रत प्रसिद्ध नहीं हैं। द्विदलव्रत : कार्तिक में; द्विदल धान्य, यथा -- तुर, राजिका, माष, मुद्ग, मसूर, चना, कुलित्थ का वर्जन होता है; निर्णयसिन्धु ( १०४ - १०५ ) । द्वितीयाभद्राव्रत : विष्टि नामक करण पर यह किया जाता है; मार्गशीर्ष शुक्ल ४ से प्रारम्भ; एक वर्ष तक; भद्रा देवी की पूजा, 'भद्रे भद्राय भद्रं हि चरिष्ये व्रतमेव ते । निर्विघ्नं कुरु मे देवि कार्यसिद्धिं च भावय ॥' नामक मन्त्र का वाचन ; ब्राह्मण सम्मान; भद्रा करण काल में कर्ता को भोजन नहीं करना चाहिए; अन्त में भद्रा की लौह या प्रस्तर या काष्ठ मूर्ति या चित्र की प्रतिष्ठा करके पूजा की जाती है; फल यह मिलता है कि भद्रा में भी किये ये संकल्पों की पूर्ति हो जाती है। हेमाद्रि ( व्रत० २, ७२४ - ७२६ ) ; पुरुषार्थ चिन्तामणि (५२) । अधिकांशतः मद्रा विष्टि को भयानक एवं अशुभ माना जाता है; स्मृतिकौस्तुभ ( ५६५-५६६) । द्विराषाढ : आषाढ़ शुक्ल ११ को विष्णु शयन करते रहते हैं। जब सूर्य मिथुन राशि में हो और इस अवधि दाएँ अन्त को प्राप्त हो जायें तो दो आषाढ़ ( चान्द्र ) मास होते हैं और अधिमास पड़ता है और विष्णु दूसरी अमावास्या ( अर्थात् कर्कट या श्रावण ) में शयन करते हैं; कालविवेक ( १६९-१७३ ) ; निर्णयसिन्धु ( १९२ ) ; समयमयूख ( ८३ ) । द्वीपव्रत : चैत्र शुक्ल तथा प्रत्येक मास में सात दिनों के लिए व्यक्ति को क्रम से सात द्वीपों, यथा--जम्बू, शाक, कुश, क्रौंच, शाल्मलि, गोमेद एवं पुष्कर की पूजा एक वर्ष तक करनी चाहिए; पृथिवी पर शयन करना चाहिए और वर्ष के अन्त में रजत, फल देने चाहिए; स्वर्ग प्राप्ति होती है; हेमाद्रि ( व्रत० २, ४६५-४६६ ) । १४० धनत्रयोदशी : आश्विन कृष्ण १३; देखिए गत अध्याय १० एवं इस सूची में 'दिवाली' । धनदपूजा : कुबेर-पूजा ; आश्विन पूर्णिमा के प्रदोष पर; तिथितत्त्व (१३६-१३७) । धनदव्रत : उपवास के साथ फाल्गुन शुक्ल १३ से आरम्भ; एक वर्ष; गन्ध, पुष्प आदि उपचारों से कुबेर ( यहाँ इन्हें 'महाराज' कहा गया है) की पूजा; अन्त में ब्राह्मण को स्वर्ण-दान; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३ । १८४१ १-३ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २,१८-१९ ) ने इसे नन्दव्रत की संज्ञा दी है। rrierra : संक्रान्ति के दिन पर आरम्भ; संक्रान्तिव्रत; एक वर्ष सूर्य देवता; प्रति मास एक घड़े में जल तथा उसमें एक स्वर्ण-खण्ड रखकर "सूर्य प्रसन्न हों" के साथ दान कर देना चाहिए; अन्त में स्वर्ण कमल एवं एक गाय का दान करना चाहिए; कर्ता को कई जीवनों तक स्वास्थ्य, सम्पत्ति तथा लम्बी आयु प्राप्त होती है; हेमाद्रि ( व्रत०२, ७३६-७३७, स्कन्दपुराण से उद्धरण) । धनावाप्तिव्रत : (१) श्रावण पूर्णिमा के उपरान्त प्रथम तिथि पर आरम्भ; एक मास तक ; नील कमलों, घी, नैसेद्य के साथ विष्णु एवं संकर्षण की पूजा; भाद्रपद पूर्णिमा के पूर्व तीन दिनों तक उपवास, व्रत के अन्त में गोदान हेमाद्रि ( व्रत० २,७५९); (२) एक वर्ष तक वैश्रवण (कुबेर) की पूजा; बहुत धन की प्राप्ति; हेमाद्रि ( व्रत० १५५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); (३) चैत्र शुक्ल प्रथमा से आरम्भ; विष्णु, पृथिवी, आकाश एवं की मूर्तियों की क्रम से प्रथमा से चतुर्थी तक एक वर्ष तक पूजा; सम्पत्ति, सौन्दर्य एवं सुख की प्राप्ति; हेमाद्रि ( व्रत० २,५०१-५०२ ) । यह चतुर्मूतिव्रत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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