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बत-सूची
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एक मनोरम लता के रूप में परिणत हो गयी और देवों ने प्रश्न किया--'यह कौन है ? हम इसे प्रसन्नता से देखेंगे' (हन्त द्रक्ष्याम हे वयम् ) और इस लता को 'द्राक्षा' (अंगूर) को संज्ञा दी। जब लता के अंगूर पक जाते हैं तो उसकी पूजा पुष्पों, धूप, नैवेद्य आदि से की जाती है और इसके उपरान्त दो बच्चों एवं दो बूढ़ों को सम्मानित किया जाता है और तब गानों एवं नाच का कार्यक्रम किया जाता है।
द्वादशमासरक्षवत : कृत्तिका नक्षत्र में पड़ने वाली कार्तिक पूर्णिमा को यह व्रत प्रारम्भ होता है; नरसिंहपूजन ; ब्राह्मण को चन्दन एवं तगर पुष्पों का दान ; मार्गशीर्ष की मृगशिरा-नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा को राम की पूजा; पुष्ययुक्त पौष पूर्णिमा को बलराम-पूजन, माघी एवं मघी में वराह-पूजन, फाल्गुनी एवं फाल्गुनियों (नक्षत्रों) में नर एवं नारायण की पूजा आदि और यह क्रम श्रावण पूर्णिमा तक चलता है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२१४११-२६)।
द्वादशसप्तमीवत : चैत्र शक्ल ७ को प्रारम्भ : १२ मासों तक सभी शक्ल सप्तमियों में; १२ आदित्यों, यथा-धाता, मित्र, अर्थमा, पूषा, शुक्र, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वान्, सविता एवं विष्णु की पूजा; अन्त में स्वर्णदान ; इससे सविता के लोक में पहुँच हो जाती है ; हेमाद्रि (व्रत० १,१११७३); अहल्याकामधेनु (८५१); दोनों ने विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१८२।१-३) को उद्धृत किया है, जहाँ इसे कामदेवव्रत की संज्ञा दी गयी है।
द्वादशाहयज्ञ-फलावाप्ति-तृतीया : (१) एक वर्ष तक प्रति तृतीया (सम्भवतः शुक्ल ) पर; १२ अर्ध दिव्य प्राणियों की, जिन्हें 'साध्य' कहा गया है, पूजा की जाती है; हेमाद्रि (व्रत० १, ४९८); (२) अनुशासन (१०९) में उपवास की व्यवस्था है, जो मार्गशीर्ष (शुक्ल ? ) की द्वादशी से आरम्भ होता है; विभिन्न नामों से, यथा--केशव, नारायण, माधव आदि, विष्णु की पूजा होती है; कर्ता को वही पुण्य या पुरस्कार प्राप्त होते हैं जो अश्वमेध, वाजपेय एवं अन्य वैदिक यज्ञ करने से प्राप्त होते हैं।
द्वादशाहसप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी पर आरम्म; एक वर्ष तक; सप्तमी पर उपवास; उस दिन विभिन्न नामों से सूर्य की पूजा, वरुण की पूजा माघ में, तपन की फाल्गुन में, वेदांशु की चैत्र में, धाता की वैशाख में...आदि ; अष्टमी को ब्राह्मण-मोजन; कृष्ण पक्ष की सप्तमी को भी उपवास आदि; हेमाद्रि (व्रत० १, ७२०-७२४)।
__ द्वादशीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की द्वादशी पर उपवास करने से पुण्य होता है; विष्णुवर्मोत्तरपुराण (१३१५९।१-२१एवं १।१६०); कुल लगभग ५० द्वादशीव्रत हैं; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ३१०-३६९); हेमाद्रि (व्रत० १, ११६२-१२२२); हेमाद्रि (काल,२८९-२९८); कालनिर्णय (२७५-२७७); तिथितत्व (११४-११७); समयमयूख (९२-९५); पुरुषार्थचिन्तामणि (२१३-२२२), व्रतराज (४७५-४९५)। बराहपुराण ने अध्याय ३९-४९ में दस अवतारों (मत्स्य से कल्की तर्क) के नामों पर १० द्वादशियों का उल्लेख किया है, जनमें से अधिकांश का उल्लेख यथास्थान क्रम से हो जायेगा। अग्निपुराण (१८८) ने कई द्वादशियों का उल्लेख 'कया है। हेमाद्रि (काल० २६०-२६३) ने ब्रह्मवैवर्त से आठ प्रकार की द्वादशियों का उद्धरण दिया है (देखिए गत अध्याय ५)। और देखिए हेमाद्रि (काल० ६३४-६३७), कृत्यरत्नाकर (१२९-१३१)। 'युग्मवाक्य' (कालनिर्णय २७५) के मत से एकादशी से युक्त द्वादशी अच्छी मानी जाती है।
द्वादशीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल से प्रारम्भ ; एक वर्ष या पूरे जीवन भर; एकादशी को व्रत, षोडशोपचार के साथ द्वादशी को वासुदेव-पूजन; यदि एक वर्ष तक किया जाय तो पापमोचन हो जाता है, यदि जीवन मर कया जाये तो श्वेतद्वीप में गति हो जाती है। यदि शुक्ल एवं कृष्ण पक्षों की द्वादशियों में व्रत किया जाये तो वर्ग-प्राप्ति और यदि इसी प्रकार जीवन भर किया जाये तो विष्णुलोक-प्राप्ति होती है; विष्णुधर्मसूत्र (४९।१-८); त्यकल्पतरु (व्रत० ३१०); अनुशासन० (अध्याय १०९)।
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