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________________ १३८ धर्मशास्त्र का इतिहास दान ; संवत्सरव्रत; महापातक भी कट जाते हैं; हेमाद्रि (व्रत० २, ८६२); (३) ऋग्वेद-पूजा (गोत्र अगस्त्य; देवता चन्द्र), यजुर्वेद-पूजा (गोत्र काश्यप; देवता रुद्र); सामवेद-पूजा (गोत्र भारद्वाज; देवता इन्द्र), इसके उपरान्त शरीरांगों का वर्णन, अर्थर्ववेद-पूजा भी; हेमाद्रि (व्रत० २, ९१५-१६)। क्या यह वेदव्रत है ? देवशयनोत्थान-महोत्सव या विधि : हेमाद्रि (व्रत०, २, ८००-८१७)। देखिए गत अध्याय ५, जहाँ उन दिनों का उल्लेख है जिनमें विष्णु सोते एवं जागते हैं। देवीपूजा : आश्विन शुक्ल ९पर; प्रतिवर्ष ; राजनीतिप्रकाश (४३९-४४)। देखिए गत अध्याय ९। देवीवत : (१) कार्तिक में; कर्ता केवल दूध एवं रात्रि में शाक सब्जी मात्र खाता है ; देवी (दुर्गा) की पूजा; तिल से होम ; 'जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वधा स्वाहा नमोस्तु ते॥' मन्त्र के साथ जप ; सभी पापों, रोगों एवं मयों से मुक्ति; हेमाद्रि (व्रत० ७७५-७७६); (२) प्रकीर्णक व्रत ; गौरी एवं शम्भु, जनार्दन एवं लक्ष्मी तथा सूर्य एवं उसकी पत्नी की मूर्तियों की पूजा ; श्वेत पुष्पों से सम्मान देने के उपरान्त धूप, घण्टी एवं दीप का दान ; इससे दिव्य रूप प्राप्त होता है; हेमाद्रि (व्रत० २, ८८४); (३) किसी भी मास की पूर्णिमा पर; कर्ता केवल दूध पर रहता तथा गोदान करने से लक्ष्मी के लोक में पहुँचता है; हेमाद्रि (व्रत०२, २३९); कृत्यकल्पतरु (४४७-४४८)। देव्यान्दोलन : चैत्र शुक्ल ३ पर; कुंकुम आदि से तथा दमनक (दौना) से उमा एवं शंकर की मूर्ति की पूजा ; पालने पर मूर्तियों को झुलाना एवं जागरण; पुरुषार्थचिन्तामणि (८५)। देव्या रथयात्रा : पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी या तृतीया को या शिव एवं गणेश के दिनों में राजा ईंटों या प्रस्तर-खण्डों से एक ढाँचा खड़ा करके उसमें देवी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करता है; वह सोने के धागों से सजाकर एक रथ तैयार करके उसमें देवी को रखता है और तब पुरुषों एवं नारियों के एक जुलूस में देवी को अपने निवास पर ले जाता है; नगर, गलियाँ, घर, द्वार सजे एवं दीपित रहते हैं; इससे सुख, गौरव, समृद्धि एवं पुत्रों की प्राप्ति होती है; हेनाद्रि (व्रत० २, ४२०-४२४)। __ दोलयात्रा : देखिए गत अध्याय १२; तिथितत्त्व (१४०); पुरुषार्थचिन्तामणि (३०८) ; गदाधरपद्धति (कालसार, १७९)। दोलायात्रा : ऊपर वाली ही; गदाधरपद्धति (कालसार, १८९-१९०)। दोलोत्सव : विभिन्न देवों के लिए विभिन्न तिथियों पर । देखिए पद्मपुराण (४१८०।४५-५०)जिसमें आया है कि कलियुग में फाल्गुन चतुर्दशी पर आठवें प्रहर में या पूर्णिमा तथा प्रथमा के योग पर दोलोत्सव ३ दिनों या ५ दिनों तक किया जाता है, पालने में झूलते हुए कृष्ण को दक्षिणाभिमुख हो एक बार देख लेने से पापों के मार से मुक्ति मिल जाती है; पद्मपुराण (६।८५) में विष्णु का दोलोत्सव भी वर्णित है। चैत्र शुक्ल ३ पर गौरी का तथा (पुरुषार्थचिन्तामणि ८५, व्रतराज ८४) राम का दोलोत्सव (समयमयूख ३५) होता है। कृष्ण का दोलोत्सव चैत्र शुक्ल ११ (पद्मपुराण ६१८५) पर होता है; गायत्री के समान मन्त्र यह है--'ओं दोलारूढाय विद्महे माधवाय च धीमहि। तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥' आज भी मथुरा-वृन्दावन, अयोध्या, द्वारका, डाकोर आदि में कृष्ण का दोलोत्सव मनाया जाता है। दौहित्रप्रतिपदा : आश्विन शुक्ल १ ; व्रतराज (६१); यह श्राद्ध है। देखिए मूल ग्रन्थ, खण्ड ४,पृ०५३३ । द्यूतप्रतिपदा : कार्तिक शुक्ल १; देखिए ऊपर 'दिवाली' के अन्तर्गत 'बलिप्रतिपदा'। द्राक्षाभक्षण : अंगूरों का प्रथम भक्षण । आश्विन में; कृत्यरत्नाकर (पृ० ३०३-३०४)। ब्रह्मपुराण में ऐसा आया है कि जब समुद्र देवों द्वारा मिथित हुआ तो क्षीरसागर से एक सुन्दर नारी का उद्भव हुआ और वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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