________________
बत-सूची
१३७
दूर्वा : भाद्रपद शुक्ल ८ को इस नाम से पुकारा जाता है; निर्णयामृत (६१); समयमयूख (५६-५७) ।
बूगणपतिव्रत : (१) दो या तीन वर्षों के लिए श्रावण या कार्तिक शुक्ल ८ पर; लाल पुष्पों, बिल्व, अपामार्ग, शमी, दूर्वा तथा तुलसी के पात्रों तथा अन्य उपचारों के साथ गणेश-मूर्ति की पूजा; गणपति के दस नामों वाले मन्त्र का उच्चारण; हेमाद्रि (बत० १, ५२०-५२३); व्रतराज (१२७-१२९, सौरपुराण से, जहाँ शिव ने स्कन्द को बताया है कि पार्वती ने इसे सम्पादित किया था); (२) रविवार को पड़ने वाली चौथ से आरम्भ ; गणपतिपूजन; व्रतराज (१४१-१४३, स्कन्द० से उद्धरण); व्रतार्क (६६-६७); (३) श्रावण शुक्ल ५ से श्रावण कृष्ण १० तक १६ उपचारों तथा दूर्वा, बिल्व, अपामार्ग आदि के दलों से २१ दिनों तक गणपति-पूजन ; व्रतराज (१२९-१४१)।
दूर्वात्रिरात्रवत: स्त्रियों के लिए; भाद्रपद शुक्ल १३ से आरम्भ ; पूर्णिमा तक तीन दिनों तक; तीनों दिन उपवास ; दूर्वा में रखकर उमा, महेश्वर, धर्म, सावित्री की मूर्तियों की पूजा; सावित्री की कथा का वाचन ; नृत्य एवं गान के साथ जागर (जागरण); प्रथम दिन तिल, घृत एवं समिधा से होम ; समृद्धि, सुख एवं पुत्रों की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० २, ३१५-३१८, पद्मपुराण से उद्धरण); सावित्री की उत्पत्ति विष्णु के केश से हुई कही जाती है और उस पर अमुत की कुछ बूंदें गिरी थीं।
दूर्वाष्टमी : (१) भाद्रपद शुक्ल ७ को उपवास ; गन्ध, पुष्प, धूप आदि से विशेषतः दूर्वा एवं शमी के साथ अष्टमी को शिव-पूजन ; हेमा० (व्रत०१,८७३-८७५); कृत्यकल्पतरु (व्रत० २३९-२४१); हेमा० (काल० १०७); जब अगस्त्य का उदय हो जाता है या सूर्य कन्या राशि में रहता है तब इसका सम्पादन नहीं होता; व्रतकालविवेक (१५); पुरुषार्थचिन्तामणि (१२०); (२) इस प्रकार में दूर्वा को ही देवी मानकर पुष्पों, फलों आदि से उसकी पूजा की जाती है ; दो मन्त्र कहे जाते हैं, जिनमें एक का अर्थ यों है-'हे दूर्वा, तुम अमर हो, देव एवं असुरों से सम्मानित हो, मुझे सौभाग्य, सन्तति एवं समी सुख दो'; तिल एवं गेहूँ के आटे से बने भोजन से ब्राह्मणों, सम्बन्धियों एवं मित्रों का सम्मान करना; यह स्त्रियों के लिए अनिवार्य है। इसका सम्पादन भाद्रपद शुक्ल की अष्टमी को ज्येष्ठा या मूल नक्षत्र में तथा अगस्त्य के उदित होने तथा सूर्य के कन्या राशि में रहने पर नहीं होता; भविष्योत्तरपुराण (५६); पुरुषार्थचिन्तामणि (१२७-१२९); स्मृतिकौस्तुभ (२२८-२३०)।
वृढव्रत : चैत्र में चन्दन-लेप' का त्याग ; अंजनपूर्ण शंख एवं दो वस्त्रों का दान; मत्स्य० (१०१।४४); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४५); कृत्यरत्नाकर (१८३); पद्मपुराण (५।२०।९१.९२) ।
देवमूर्तिवत : चैत्र शुक्ल की प्रथमा से आरम्भ ; एक वर्ष तक प्रत्येक मास में चार दिनों तक क्रम से शिव, अग्नि, विरूपाक्ष एवं वायु की मूर्तियों की दही, तिल, यवों एवं घी से पूजा; यह चतुर्मूर्तिव्रत है; हेमाद्रि (व्रत० २, ५०४-५०५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
देवयात्रोत्सव : नीलमतपुराण (पृ० ८३-८४, श्लोक १०१३-१०१७) । देव-मन्दिरों में यात्रोत्सव का सम्पादन कुछ निश्चित तिथियों में होता है, यथा-विनायक-मन्दिर में चौथ पर, स्कन्द-मन्दिर में षष्ठी पर, सूर्यमन्दिर में सप्तमी पर, दुर्गा-मन्दिर में नवमी पर, उसी प्रकार लक्ष्मी, शिव, नागों एवं विश्वेदेवों के मन्दिरों में क्रम से पंचमी, अष्टमी या चतुर्दशी, पंचमी, द्वादशी या पूर्णिमा पर; राजनीतिप्रकाश (पृ० ४१६-४१९) ने इसके लिए वैशाख से लेकर आगे ६ मासों तक देवों के मन्दिरों में व्यवस्था दी है, यथा--प्रथमा पर ब्रह्मा, तृतीया पर गंगा आदि।
देववत : (१) जब चतुर्दशी को मघा नक्षत्र का बृहस्पति से योग हो तो उस पर उपवास करना चाहिए और महेश्वर-पूजा करनी चाहिए; इससे जीवन, सम्पत्ति एवं यश की वृद्धि होती है; हेमाद्रि (व्रत०, २०६४); (२) आठ दिनों तक नक्त, गोदान, स्वर्ण-चक्र, त्रिशूल एवं दो वस्त्रों का 'शिव एवं केशव प्रसन्न हों' शब्दों के साथ
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org