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धर्मशास्त्र का इतिहास दिवाकरवत : हस्त नक्षत्र में रविवार पर ; सात रविवारों तक ; वारखत ; भूमि पर खिचे १२ दलों बाले कमल पर सूर्य-पूजा ; प्रत्येक दल पर क्रम से सूर्य, दिवाकर, विवस्वान्, भग, वरुण, इन्द्र, आदित्य, सविता, अर्क, मार्तण्ड, रवि, मास्कर बैठाये जाते हैं; वैदिक तथा अन्य मन्त्र पढ़े जाते हैं; कृत्यकल्पतरु (व्रत० २३-२५); हेमाद्रि (व्रत० २, ५२३-५३३, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
दीपदानव्रत : प्रत्येक पुण्यकाल, यथा--संक्रान्ति, ग्रहण, एकादशी पर, विशेषतः आश्विन पूर्णमासी से कार्तिक पूर्णमासी तक किसी मास भर घृत या तेल के दोपों को मन्दिरों, नदियों, कूपों, वृक्षों, गोशालाओं, चौराहों, घरों में जलाना ; पुण्य प्राप्त होते हैं ; अनुशासन० (९८।४५-५४); अग्निपुराण (२००); अपराक (३७०-३७२); हेमाद्रि (व्रत० २, ४७६-४८२, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (४०३-४०५); दानसागर (४५८-४६२)।
दीपलक्षण : बृहत्संहिता (८३।१-२) ने दीपों की ज्वाला को देखकर शकुनों का उल्लेख किया है।
दीपव्रत : मार्ग० शुक्ल एकादशी पर प्रारम्भ ; पंचामृत से स्नान कराकर वैदिक मन्त्रों से प्रणाम करके लक्ष्मी एवं नारायण की पूजा; दोनों की मूर्तियों के समक्ष दीप जलाना; पद्मपुराण (६।३१।१-२२)।
दीपप्रतिष्ठावत : ब्रह्माण्डपुराण (३।४७-६१) के अनुसार विष्णु द्वारा घोषित एवं पृथिवी द्वारा सम्पादित। दीपान्विताभावास्या : कृत्यतत्त्व (४५१); दीपावली की अमावास्या के समान ही।
दीप्तिवत : एक वर्ष तक प्रत्येक सन्ध्या में ; कर्ता तेल का प्रयोग नहीं करता और वर्ष के अन्त में दीपों, चक्र, त्रिशूल तथा वस्त्र के जोड़े का दान करता है ; वह दीप्तिमान् हो जाता है और रुद्रलोक जाता है; यह संवत्सरव्रत है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४५, हेमाद्रि, व्रत० २, ८६६) ।
दुग्धव्रत : भाद्रपद को द्वादशी पर; दुग्ध का पूर्ण वर्जन ; निर्णयसिन्धु (१४१) ने कई मतों का उल्लेख किया है ; पायस या दही के सेवन के विषय में मतभेद प्रकट हुआ है, यद्यपि दुग्ध का सेवन वजित ठहराया गया है ; वर्षक्रियादीपक (७७); स्मृतिकौस्तुभ (२५४)।
दुर्गन्ध-दुर्भाग्यनाशन-त्रयोदशी : ज्येष्ठ शुक्ल १३ पर; तीन वृक्षों की पूजा, यथा--श्वेत मन्दार या अर्क, लाल करवीर एवं निम्ब, जो सूर्य के प्रिय कहे जाते हैं। प्रति वर्ष; इससे शरीर की दुर्गन्धियाँ एवं दुर्भाग्य दूर होते हैं; हेमाद्रि (व्रत० २, १४-१६)।
दुर्गानवमी : (१) आश्विन की नवरी पर आरम्भ ; वर्ष भर ; आश्विन से आगे के मासों में विभिन्न पुष्प, धूप, नैवेद्य होते हैं; दुर्गा के अन्य नाम हैं मंगल्या एवं चण्डिक। ; हेमाद्रि (व्रत० १, ९३७-९३९, भविष्यपुराण से उद्धरण); (२) किसी भी नवमी पर; हेमाद्रि (व्रत० १, ९५६-९५७); वर्षक्रियाकौमुदी (४१); (३) सभी नवमियों पर, क्योंकि उस दिन भद्रकाली को सभी योगिनियों की स्वामिनी बनाया गया था; पुरुषार्थचिन्तामणि (१४०)।
दुर्गापूजा : देखिए गत अध्याय ९।
दुर्गावत : श्रावण शुक्ल अष्टमी पर प्रारम्भ ; एक वर्ष ; १२ मासों में देवी के विभिन्न नामों से पूजा की जाती है; १२ मासों में व्रतकर्ता विभिन्न स्थानों से प्राप्त पंक से शरीर को ढंक लेता है ; नैवेद्य मी विभिन्न होता है (जिसमें आश्विन ८ पर हरिण एवं बकरे का मांस भी होता है); हेमाद्रि (वत १, ८५६-८६२) ; कृत्यरत्नाकर (२३८-२४४) ; यही बात कृत्यकल्पतर (प्रत० २२५-२३३) में भी है, किन्तु वहाँ इसे दुर्गाष्टमी कहा गया है।
दुर्गाष्टमी : देखिए ऊपर दुर्गावत । दुर्गोत्सव : देखिए गत अध्याय ९ एवं तिथितत्त्व (६४-१०३)।
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