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धर्मशास्त्र का इतिहास दधिवत : श्रावण शुक्ल १२ पर; निर्णयसिन्धु (१११); उस दिन दही का सेवन नहीं किया जाता।
दधिसंक्रान्तिवत: उत्तरायण-संक्रान्ति पर प्रारम्भ, प्रत्येक संक्रान्ति पर एक वर्ष तक; नारायण एवं लक्ष्मी की पूजा; इनकी मूर्तियों को दही से स्नान कराना तथा ऋग्वेद (१।२२।२०) मन्त्र या 'ओं' नमो नारायणाय का पाठ करना; वर्षक्रियाकौमुदी (२१८-२२२)।
दमनकपूजा : चैत्र शु० १३ पर; दमनक के रूप में काम की पूजा; तिथितत्त्व (१२०-१२१); वर्षक्रियाकौमुदी (५२९-५३१)।
दमनभजी : चैत्र शु० चतुर्दशी को ऐसा कहा जाता है; दमनक के सभी अंगों (यथा--जड़, तना एवं टहनियों) के साथ काम की पूजा; कालविवेक (४६९); वर्षक्रियाकौमुदी (५३१) ।
दमनकमहोत्सव : चैत्र शु० १४ पर; तिथि ; दमनक से विष्णु-पूजा; स्मृतिकौस्तुभ (१०१-१०३); पद्म० (६।८६।१४); 'तत्पुरुषाय विद्महे कामदेवाय धीमहि । तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्' कामगायत्री है।
दमनकोत्सव : चैत्र शु०१४ पर; वाटिका में दमनक पौधे की पूजा; अशोक वृक्ष की जड़ में शिव (जो स्वयं काल कहे जाते हैं) का आवाहन ; देखिए ईशानगुरुदेवपद्धति (२२वाँ पटल, त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज), जहाँ यह लम्बी गाथा दी हुई है कि किस प्रकार शिव के तीसरे नेत्र से अग्नि भैरव के रूप में प्रकट हुई, किस प्रकार शिव ने उसे दमनक की संज्ञा दो, पार्वती ने शाप दिया कि वह पृथिवी पर पौधे के रूप में प्रकट हो जाये तथा शिव ने उसे वरदान दिया कि यदि लोग उसकी पूजा केवल वसन्त एवं मदन के साथ करेंगे तो उन्हें सभी वस्तुओं की प्राप्ति होगी। इसमें अनंग-गायत्री इस प्रकार है-'ओं क्लीं मन्मथाय विद्महे कामदेवाय धीमहि । तन्नो गन्धर्वः
दयात् ॥'; हेमाद्रि (व्रत० २, ४५३-५५); व्रतप्रकाश; स्कन्द० (१।२।९।२३); पुरुषार्थचिन्तामणि (२३७)।
दमनकारोपण : चैत्र की प्रतिपदा से अमावस तक ; प्रथम तिथि से १५ दिनों तक दमनक पौधे से विभिन्न देवों की पूजा, यथा--प्रथम दिन उमा, शिव एवं अग्नि की, दूसरे दिन ब्रह्मा की, तीसरे दिन देवों एवं शंकर की, चौथे दिन से १५वें दिन तक क्रम से गणेश, नागों, स्कन्द, भास्कर, माताओं, महिषमदिनी, धर्म, ऋषियों, विष्णु, काम, शिव, इन्द्र (शची के साथ) की ; हे० (व्रत० २, ४५३-४५५); कृत्यरत्नाकर (३१-९५); समयमयूख (८४-८६)।
दशमीव्रत : देखिए हेमाद्रि (व्रत० २, ९६३-९८३); कालनिर्णय (२३० २३३); पुरुषार्थचिन्तामणि (१४२-१४८); अतराज (३५२-३६१) । हेमाद्रि ने ११ नाम दिये हैं, किन्तु कृत्यकल्पतरु (व्रतखण्ड, ३०९) ने केवल एक व्रत का उल्लेख किया है, यथा--सार्वभौमवत।
दशरथचतुर्थी : कार्तिक कृष्ण चतुर्थी पर ; मिट्टी के पात्र में राजा दशरथ की मूर्ति तथा दुर्गा की पूजा; पुरुषार्थचिन्तामणि (९४-९५) ने इसे करक-चतुर्थी कहा है ; निर्णयसिन्धु (१९६)।
दशरथललिता-व्रत : आश्विन शु० दशमी पर ; तिथि ; दस दिनों तक; ललिता की स्वर्ण-मूर्ति, चन्द्र एवं रोहिणी की रजत-मूर्तियों की देवी के समक्ष, शिवमूर्ति की दाहिने तथा गणेश-मूर्ति की बायें पार्श्व में पूजा; यह दशरथ एवं कौशल्या ने की थी। प्रतिदिन विभिन्न पुष्पों का प्रयोग ; हेमाद्रि (व्रत० २, ५७०-७४) ।
दशहरा : देखिए इस खण्ड का अध्याय ४।
दशादित्यव्रत : रविवार वाली शु० दशमी पर, दस गाँठों वाले डोरक के रूप में भास्कर (सूर्य) की पूजा; दस कर्मों से उत्पन्न दुर्दशा का निवारण हो जाता है ; दस रूपों में दुर्दशा की मूर्ति तथा दस रूपों में लक्ष्मी की मूर्ति की पूजा; हेमाद्रि (बत० २, ५४९-५५२)।
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