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व्रत-सूची
त्रिलोचन - यात्रा : (१) वैशाख शु० तृतीया पर शिवलिंग पूजा; समयमयूख (३६ काशीखण्ड का उद्धरण); (२) काशी में त्रयोदशी पर विशेषतः रविवार को प्रदोष पर कामेश की यात्रा, कामकुण्ड में स्नान; पुरुषार्थचिन्तामणि ( २३० ) ।
त्रिसुगन्ध : त्वक् ( दालचीनी), इलायची एवं पत्रक ( तेजपात ) को बराबर मात्रा में मिलाकर बनाया जाता है; हेमाद्रि ( व्रत० १।४४ ) ।
त्रिस्पृशा : आठ प्रकार की द्वादशियों में एक प्रकार जब अरुणोदय में अल्पकाल के लिए एकादशी होती है तब द्वादशी लग जाती है और उस दिन के बाद दूसरे प्रातः के पूर्व ही त्रयोदशी लग जाती है तब इस द्वादशी को त्रिस्पृशा कहा जाता है; हेमाद्रि (काल, २६१ ) । देखिए पद्मपुराण (६१३५) ।
त्रिविक्रम - त्रिरात्रव्रत : मार्गशीर्ष शु० ९ पर आरम्भ; प्रत्येक मास में दो त्रिरात्रव्रत होते हैं; ४ वर्ष एवं २ मलमासों अर्थात् कुल ५० मासों में १०० त्रिरात्र होते हैं; वासुदेव पूजा; अष्टमी पर एकभक्त और उसके उपरान्त तीन दिनों एवं रातों तक उपवास, कार्तिक में व्रत का अन्त; हेमाद्रि ( व्रत०, २।३१८ - ३२० ) ।
त्रिविक्रमतृतीया : (१) प्रत्येक मास की शु० तृतीया पर आरम्भ ; तीन या बारह वर्ष ; त्रिविक्रम एवं लक्ष्मी की पूजा ; ऋ० (१।२२।२० ) के मन्त्र के साथ या नारियों तथा शूद्रों के लिए 'त्रिविक्रमाय नमः' के साथ होम हे० ( व्रत०, १,४५३-५४, विष्णुधर्मोत्तर ०३। १३३ । १-१३ से उद्धरण); (२) ज्येष्ठ शु० ३ पर आरम्भ ; द्वितीया को उपवास और तृतीया के प्रातः अग्नि-पूजा तथा संध्या को सूर्य पूजा, उस दिन नक्त (रात्रि में भोजन ), विष्णु के तीन पदों की पूजा, एक वर्ष तक; हे० ( व्रत० १,४५५-४५६ ); (३) ज्येष्ठ शु० ३ पर प्रारम्भ; एक वर्ष ; तीन मासों की अवधि पर पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग की पूजा; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१३५ ) ।
त्रिविक्रमव्रत : कार्तिक से तीन मासों या तीन वर्षों तक; वासुदेव पूजा; व्रतकर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है; ० ( व्रत २, ८५४-८५५, विष्णुधर्मोत्तर ० से उद्धरण ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रतकाण्ड, ४२९-४३० ) ।
त्रिवृत्: दुग्ध, दही एवं घी को बराबर भाग में मिलाने से यह बनता है; वैखानसस्मार्तसूत्र ( ३|१० ) । त्रिसम : लवंग, स्वक् ( दालचीनी) एवं पत्रक को मिलाने से यह बनता है; हेमाद्रि ( व्रत, १, ४३ ) ।
यहस्पृक् : विष्णुधर्मोत्तर ० ( १६० १४ ) ; जब एक अहोरात्र में तीन तिथियाँ स्पर्श को प्राप्त होती हैं तो उसे इस नाम से पुकारा जाता है; यह काल पवित्र माना जाता है ।
त्रयम्बक या व्यम्बक-व्रत : प्रत्येक मास की चतुर्दशी को नक्त-पद्धति पर भोजन ग्रहण करना तथा वर्ष के अन्त में एक गाय का दान करना; शिव-पद की प्राप्ति; हेमाद्रि ( व्रत० २, १४७, पद्म० से एक श्लोक ) तथा कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड (४४९); यहाँ मत्स्य ० से उद्धरण है ।
दत्तात्रेय - जन्म मार्गशीर्ष पूर्णमासी पर; अत्रि की पत्नी अनसूया ने उन्हें 'दत्त' नाम दिया ( क्योंकि देवों पुत्र के रूप में उन्हें दिया था ) तथा वे अत्रि के पुत्र थे अतः उनका नाम दत्तात्रेय पड़ा; निर्णयसिन्धु ( २१० ) ; स्मृतिकौस्तुभ ( ४३० ), वर्ष क्रिया दीपक (१०७-१०८ ) ; दत्त - भक्ति का प्रचलन अधिकतर महाराष्ट्र में है और इससे सम्बन्धित स्थान, यथा--औदुम्बर, गणगापुर, नर्सोबावाड़ी महाराष्ट्र में अवस्थित हैं; दत्तात्रेय ने कार्तवीर्य को वर दिये (वनपर्व ११५, १२ ब्रह्मपुराण, १३।१६० - १८५ मत्स्य० ४३।१५-१६ ) वे विष्णु के अवतार थे, उन्होंने अलर्क को योग का सिद्धान्त बतलाया ( ब्रह्मपु० २१३।१०६-११२ मार्कण्डेय पु० १६ । १४; ब्रह्माण्ड पु० ३३८१८४) ; वे सह्य की घाटियों में रहते थे, अवधूत कहलाते थे, वे मद्य का पान करते थे और स्त्रियों की संगति चाहते थे । देखिए पद्म० (२।१०३।११०-११२) एवं मार्कण्डेयपुराण ( १६ । १३२ - १३४ ) । तमिल पंचांगों से प्रकट होता है कि दत्तात्रेय जयन्ती तमिल में भी मनायी जाती है।
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