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धर्मशास्त्र का इतिहास तब रम्भाव्रत को छोड़कर सभी व्रतों में चतुर्थी से युक्त तृतीया स्वीकृत होती है (कालनिर्णय १७४; तिथितत्त्व ३०-३१; पु० चि० ८४-८५)।।
तेजस्संक्रान्ति-वत : प्रति संक्रान्ति दिन पर ; एक वर्ष के लिए ; सूर्य-पूजा; हेमाद्रि (व्रत०,२१७३४-३५)।
त्रयोदशपदार्थवर्जन-सप्तमी : किसी मास के शुक्ल पक्ष में पुरुषवाची नक्षत्र (यथा--हस्त, पुष्य, मृगशीर्ष, पुनर्वसु, मूल, श्रवण) के साथ सप्तमी को रविवार के दिन उत्तरायण के अन्त में व्रत का आरम्भ होता है; एक वर्ष के लिए; सूर्य-पूजा; वीहि, यव, गेहूँ, तिल, माष, मदग आदि १३ पदार्थों का वर्जन, केवल अनाज पर जीविका-निर्वाह (१३ को छोड़कर); हेमाद्रि (व्रत० ११७५६, भविष्योत्तरपुराण ४५।१-५ से उद्धरण)।
त्रयोदशीव्रत : अग्नि० (१९१), हेमाद्रि (व्रत० २, १-२५, लगभग १४); कृत्यकल्पतरु (व्रत. ३६९, केवल एक का उल्लेख); 'कालनिर्णय (२७७); कालविवेक (४६९); वर्षक्रियाको० (७०);स्मृतिकौमुदी (९५-९६); पुरुषार्थचिन्तामणि (२२२-३१)।
त्रयोदशीव्रत : किसी मास की त्रयोदशी पर; कर्ता सोने, चाँदी, ताम्र या मिट्टी के पात्र में कपित्थ फल के बराबर गाय का मक्खन रखता है, पुष्पों या अक्षतों से उस पर कमल बनाता है और लक्ष्मी एवं विष्णु का आवाहन करता है, मक्खन को दो भागों में करता है, दोनों पर पृथक्-पृथक् मन्त्रों का पाठ करता है और दोनों भाग अपनी पत्नी को देता है, सर्वप्रथम विष्णु वाले को और पुनः लक्ष्मी वाले को। इसका परिणाम यह होता है कि कर्ता को कई पुत्र उत्पन्न होते हैं; हे०व० (२, १९-२१); चैत्र शु० १३ पर किसी घड़े या श्वेत वस्त्र पर कामदेव एवं रति की प्रतिमा बनाकर, उसे अशोक के सुमनों से अलंकृत कर दमनक (दौना) से पूजा करना; कालविवेक (४६९)।
त्रिगति-सप्तमी : फाल्गुन शु० ७ पर प्रारम्भ ; एक वर्ष ; हेलि (यूनानी हेलिओस, सूर्य) के नाम से सूर्य की पूजा; फाल्गुन से ज्येष्ट तक हंस के रूप में सूर्य-पूजा; आषाढ़ से आश्विन तक मार्तण्ड के रूप में, कार्तिक से माघ तक भास्कर के रूप में ; इससे पृथिवी के राज्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है, इन्द्रलोक के आनन्दों की प्राप्ति तथा सूर्यलोक में निवास होता है (यही तीन गतियाँ हैं); भविष्य ० (ब्राह्म पर्व १०४।२-२४); कृत्यकल्पतरु (व्रत० १४१-१४५); हे व्रत० (१, ७३६-३८); कृ० र० (५२४-५२६)।
त्रितयप्रदान-सप्तमी : हस्त नक्षत्र के योग में माघ शु० ७ पर; कृत्यकल्पतरु (व्रत०) के अनुसार यह तिथिव्रत है, किन्तु हेमाद्रि (व्रत०) के अनुसार मासक्त; एक वर्ष; सूर्य ; अच्छे कुल में जन्म, स्वास्थ्य एवं सम्पत्ति की प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु (व्रत०, १५१-१५३); हे. व० (१, ७४४-७४५); कृ० र० (४५८-४६०)।
त्रिदिनस्पृक : जब कोई एक तिथि सप्ताह के तीन दिनों का स्पर्श करती है तो उसे इस नाम से पुकारा जाता है। हेमाद्रि (काल० ६७७); निर्णयसिन्धु (१५४)।
त्रिपुरसूदनवत : उत्तरा नक्षत्र के साथ रविवार को ; सूर्य-पूजा; घी, दूध, ईख के रस से पूजा; कुंकुम का लेप; हेमाद्रि' (व्रत० २, ५२५, भविष्योत्तर० से उद्धरण)।
त्रिपुरोत्सव : कार्तिक की पूर्णिमा की सन्ध्या को ; शिव-मन्दिर में दीप जलाये जाते हैं; नि० सि० (२०७); स्मृतिकौ० (४२७) ।
त्रिमधुर : मधु, घृत एवं शक्कर को ऐसा कहा जाता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण (३।१२७।१० एवं ३।१३६।२-३); हेमाद्रि (व्रत० १, ४३ एवं २, ७५०)।
त्रिमूर्तिवत : ज्येष्ठ शुक्ल ३ पर; तिथि ; तीन वर्ष ; वायु, चन्द्र, सूर्य के रूप में विष्णु-पूजा; विष्णधर्मोत्तरपुराण (३।१३६)।
त्रिरात्रवत : सावित्री द्वारा सम्पादित । देखिए वनपर्व (२९६।३) ।
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