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________________ १३० धर्मशास्त्र का इतिहास जलाने) को तप कहा है। अनुशासनपर्व (१०३।३) का कथन है कि उपवास से बढ़कर कोई उच्च तप नहीं है। विशेष जानकारी के लिए देखिए इस ग्रन्थ का मूल भाग--४, पृ० ४२-४३)। तपश्चरणवत : मार्ग० कृष्ण सप्तमी को प्रारम्भ ; तिथि; एक वर्ष ; सूर्य-पूजा; हे. (व्रत० १, ६३०-६३२, भविष्योत्तर से)। तपोवत : माघ की सप्तमी; तिथि ; कर्ता रात्रि में केवल एक छोटा वस्त्र धारण करता है और एक गाय का दान करता है; हेमाद्रि (व्रत० १, ७८८, पद्मपुराण से एक श्लोक)। तप्तमुद्राधारण : आश्विन शु० या कार्तिक शु० ११ को शरीर पर शंख, चत्र का चिह्न तप्त ताम्र या किसी अन्य धातु से दागना। यह कृत्य माध्व, रामानुज आदि वैष्णवों या अन्य सम्प्रदायों द्वारा किया जाता है। समयमयूख (८६-८७) का कथन है कि इसके लिए कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है; किन्तु निर्णयसिन्धु (१०७-१०८) एवं धर्मसिन्धु (५५) के अनुसार इसमें कुलाचार का अनुसरण किया जाता है। ताम्बूल-संक्रान्ति : केवल नारियों के लिए; एक वर्ष ; कृत्य करने वाली नारी प्रतिदिन ब्राह्मणों को ताम्बूल खिलाती है और वर्ष के अन्त में ब्राह्मण को उसकी पत्नी के साथ एक स्वर्ण-कमल एवं ताम्बूल के सभी पात्र देती है तथा रात्रि में सुस्वादु भोजन कराती है; सौभाग्य की प्राप्ति करती है तथा पति, पुत्रों आदि के साथ सुखपूर्वक जीवनयापन करती है ; हे० (व्रत० २, ७४०-४१); व्रतार्क (३८८)। तारकाद्वादशी : मार्ग ० शु० १२ पर एक वर्ष के लिए आरम्भ ; सूर्य एवं तारों की पूजा; प्रति मास में विभिन्न प्रकार के भोजनों द्वारा ब्रह्म-मोज; तारों को अर्घ्य ; सभी पाप कट जाते हैं; उस राजा की कथा, जिसने भ्रमवश एक तापस को हिरन समझ कर मार दिया था और १२ जन्मों में विभिन्न पशुओं के रूप में प्रकट हुआ; हेमाद्रि (व्रत० १, १०८४-१०८९, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण) । तारात्रिरात्रवत : माघ कृ० १४ प; तिथि ; हरि एवं तारों की पूजा ; कृत्यरत्नाकर (४९६-४९७)। तालनवमी : भाद्र० शु० नवमी पर; दुर्गा की पूजा; वर्षक्रियाकौमुदी (३२०) । तिथियुगलवत : किसी मास की दो अष्टमियों एवं चतुर्दशियों पर, प्रत्येक मास की अमावास्या एवं पूर्णमासी पर, दोनों सप्तमियों एवं दो द्वादशियों पर कुछ भी न खाना; एक वर्ष तक; हे० ० (२, ३९७); कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३८७)। तिन्दुकाष्टमी : ज्येष्ठ की कृष्णाष्टमी से प्रारम्भ ; एक वर्ष; ज्येष्ठ से आगे ४ मासों तक हरि-पूजा; आश्विन से पौष तक धतूरे के पुष्पों से पूजा; माघ से वैशाख तक शतपत्रों (दिन-कमलों) से पूजा; हेमाद्रि (व्रत खण्ड १, ८४०-८४१, भविष्यपुराण से)। तिलकवत : चैत्र शु० प्रतिपदा पर'; तिथि ; एक वर्ष ; सुगंधित चूर्ण से खचित संवत्सर की पूजा; कर्ता अपने मस्तक पर श्वेत चन्दन के लेप से तिलक करता है; हे० ७० (१, ३४८-३५०, भविष्योत्तर० ८।१-२५ से उद्धरण); समयप्रकाश (११); व्रतराज (५४-५६); पु० चि० (९)। तिलचतुर्थी : माघ शु० ४; यह कुन्दचतुर्थी के समान ही है; निर्णय० (२१९); ध० सि० (१२४); वर्षकृत्यदीपक (११०-१११ एवं २८७)। यह ढुण्डिराजचतुर्थी के समान ही है; नक्त व्रत, ढुण्डिराज की पूजा; तिल के लड्डुओं का नैवेद्य। तिलदाहीव्रत : पौष कृ० ११ पर; तिथि ; विष्णु देवता; उस दिन उपवास; पुष्य नक्षत्र पर एकत्र किये गये सूखे गोबर (कण्डों) एवं तिल से होम ; इससे सौन्दर्य की प्राप्ति तथा सभी उद्देश्यों की पूर्ति होती है; हे. व्र० (१, ११३१-३५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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